रविवार, 28 जुलाई 2013

चेतावनी




यकीन नहीं होता ।
आपको हुआ ?
सुना तो होगा . . 

खाने में नमक कम हुआ,
तो पत्नी को धुन दिया ।
लड़की ने ना कहा,
तो उस पर ऐसिड डाल दिया ।
औरत ने आवाज़ उठाई,
तो जवाब बलात्कार से दिया ।

ये किस दुनिया के ?
कौनसी कौम के लोग हैं ?
कैसे लोग हैं ?

इंसानी मुखौटों के पीछे छुपे 
हैवानियत के नमूने हैं. 
इनसे बचने के लिए 
चौकन्ना रहना बहुत ज़रूरी है. 

बेटियों - बहनों को सतर्क रहना 
सिखाइये,
और हर पल दुआ मांगिये . . 
इंसानों को इंसान ही मिलें ।
हैवानों से हैवान निबटते रहें ।



               

बुधवार, 24 जुलाई 2013

मन




मन को क्यों 
बंधक 
रखा है तुमने ?

मन को 
मुक्त कर दो. 

इस नन्हे से 
पाखी को
नभ की ऊँचाई 
नापने दो,
जीवन की गहराई
जानने दो. 

उसके पंखों में 
है कितनी उड़ान . .  
परखने दो. 


     

खिड़की



खोल दो 
मन की खिड़की । 
बाहर की 
हवा आने दो . 

खिड़की के हिस्से का 
आसमान 
धूप के रास्ते
उतर आने दो 
ज़मीन पर . 

धूल, धुंआ , बारिश की बौछार ,
मिटटी की महक 
बस जाने दो 
भीतर . 

खिड़की का खुलना 
है एक प्रबल संभावना,
जीवन के चमत्कार की 
झलक मिल जाने की .    




शुक्रवार, 19 जुलाई 2013

महक




किसी भी 
गाँव, गली, कूचे में 
अचानक, 
बचपन की महक 
चुपके से आ कर
लिपट जाती है ।
वैसे, 
ठीक-ठाक कहना 
मुश्किल है,
क्या अभिप्राय है 
'महक' से ।

शायद ये 
बारिश की पहली 
बौछार के बाद की 
मिट्टी की 
सौंधी - सौंधी 
महक है ।
या चूल्हे पर सिकती, 
अम्मा के हाथ की 
करारी रोटी की, 
भूख जगाती 
महक है ।
या फिर 
मंदिर में मिले 
प्रसाद के दोने की 
मीठी महक है ।
कौन जाने 
शायद ये 
दोपहर भर खेलने के 
बाद पसीने से भीगी 
कमीज़ की 
नमकीन सी 
महक है ।

कुछ चीज़ें 
बिना नाम के भी 
पहचानी जाती हैं ।
कभी - कभी 
यूँ ही 
दस्तक दे जाती हैं ।




          

सोमवार, 15 जुलाई 2013

लय



जब भी 
मेरी बेटी 
वायलिन बजाती है ..
आसपास की 
हर गतिविधि 
लयबद्ध 
           हो जाती है ।

दूध का उफ़ान 
ठंडा हो जाता है ।
घिर्र - घिर्र करता पंखा 
शांत हो जाता है ।    

जब भी 
मेरी बेटी 
वायलिन बजाती है ..

बाल्टी में 
नल से 
          पानी का गिरना ..

बाल्कनी के 
पौधों पर उगे 
                   फूलों का हिलना ..

खिड़की पर टंगे 
पर्दों से बंधे 
                 घुंघरुओं का छनकना ..

मंदिर के शिखर से 
बंधी पताका के 
                      पट का रोमांचित होना ..

पूजा घर के आले में 
प्रज्ज्वलित दीपक की 
                                लौ का कंपित होना ..

नन्हे नौनिहाल का 
घुटनों - घुटनों 
                      धीरे - धीरे सरकना ..

झुर्रियों से भरे 
दादी के चमकते चेहरे
                               का हौले से मुस्कुराना ..

.. एक लय में होता है ।

मेरे भीतर 
एक नदी 
एक लय में 
निरंतर 
           बहती है ।


  

शनिवार, 13 जुलाई 2013

जनाब ! कविता पक रही है !




जग आँगन में अँगीठी ..
विचारों की ..  
सुलग रही है ।
भावनाओं की आँच पर,
मन की पतीली में 
कविता खदक रही है ।

मनभावन महक आ रही है ।
बेसब्री सता रही है ।

आओ, झट से 
पंगत में बैठें, 
और प्रतीक्षा करें 
रचना 
परोसे जाने की ।      




शनिवार, 6 जुलाई 2013

छाप



नहीं पता ..
कैसी है ये दशा ।
पढ़ा हुआ 
कुछ भी 
याद नहीं रहता .

             एक सुन्न सन्नाटा 
             स्मृति पर छाया हुआ,
             जैसे गाढ़ा कोहरा
             धुंध का दुशाला दोहरा, 
             जब भी पीछे मुड़ कर देखा।

पढ़ा हुआ क्या 
कुछ भी 
याद नहीं रहता ?
पढ़ कर जो कुछ पाया 
क्या सब खो दिया ?

             अँधेरी कोठरी में जला कर दिया
             जैसे कोई चीज़ खोजना .. 
             ऐसे ही अपने प्रश्न का 
             मैंने स्वयं उत्तर दिया ।  

नहीं हो पाती 
पढ़े हुए की व्याख्या,  
पर रह जाता है 
एक अहसास चुप-चुप सा ।
कहा नहीं जा सकता, 
पर अनदेखा भी 
किया नहीं जा सकता ।
एक अव्यक्त अनुभूति होती है ।
कोई बात रह जाती है ।
जैसे हवा में खुशबू घुल जाती है ।
जैसे गीली मिट्टी पर छाप रह जाती है ।

             फूल मुरझा जाते हैं ।
             पर सुगंध मन में बस जाती है ।
             वर्षा का जल बह जाता है ।
             पर मिट्टी नमी सोख लेती है ।

समय की लठिया टेकता 
पतझड़ जब आता है, 
सारे पत्ते झड़ जाते हैं । 
और अगर तूफ़ान आ गया .. 
सब कुछ तहस-नहस कर जाता है ।

इतना सब ध्वस्त 
होने के बाद भी, 
मिट्टी में कहीं 
बीज दबा रह जाता है ।
भाव के इस बीज से ही 
कल अंकुर फूटेगा । 
विचारों का पौधा 
पल्लवित होगा । 
और संवेदनशीलता का 
हरा-भरा वृक्ष लहलहायेगा 
अंतःकरण की 
उर्वर भूमि पर ।                       
                      
            



रविवार, 30 जून 2013

कविता की व्यथा




कविता की व्यथा ,
चुभती, कचोटती कथा .
कांच का टुकड़ा ,
कलेजे में उतरा .

जो कहना मना था ,
वही कह बैठा .
आंसुओं का सिलसिला ,
भीतर तक पैठा .

कितना कुछ कहना था ,
जब कहने बैठा ..
शब्दों की विवेचना 
में उलझ बैठा .
उधेड़बुन से छूटा 
तो भावनाओं में डूबा .

डूबा तो जाना ,
कविता की व्यथा ,
होती है क्या .

व्यथा में पिरोया 
मोती कविता का ,
कविता की मार्मिक कथा .




रविवार, 23 जून 2013

The Road Less Travelled




Roads have always fascinated me. They seem to lead to endless possibilities, unknown destinations and promise loads of adventure on the way. So when you suggest a road trip .. hmmm ! Thats a brilliant idea to explore the country side and a great chance to know the people, their traditions, their hopes and aspirations ! Okay then .. lets plan !



First of all I need to pack up all my things ! Things I cannot do without..basics taken care of ! I would like to invite a few friends who would be fun to travel with. A sturdy vehicle to accommodate the necessities and enough leg space ! A caravan ? Will do. A lot of music to keep  company when everyone is too tired to talk and rather keen on enjoying the view. 

And Ambi Pur to enhance the ambience with a soothing fragrance. 



We will take turns at the steering wheel..no problem. We will travel mainly during day time and put up at the wayside hotels in the night. Did I forget the road map ! Come on how can I ! The road map to trace our way through the country and lead us to our destination. 


What about food ? Well a road trip is a great opportunity to taste food at the way side dhabas and get acquainted with the local flavour. The freshly cooked delicious piping hot khana ! wow ! 


Sometimes it will be nice to park the vehicle and walk through the fields. May be discover a river flowing by or a hidden waterfall. Visiting the villages on the way will further enrich our experience.Somehow I feel that the cities are all the same. They do have their own identity though. But living in cities, we are more familiar with the city life. Not so with the village life. They say the real India lives in the villages. Must be true. For villages are more tuned to the surrounding nature and have a character of their own.



Then there will be the woods ..

            "Stopping by woods on a snowy evening.."

I am reminded of this poem by Robert Frost. 

             " The woods are lovely dark and deep,
                 But I have promises to keep.
                 And miles to go before I sleep.
                 And miles to go before I sleep. "

That kind of sums up the mood of our journey.



And yes. There is a special task on my mind too. I will collect the local handicraft as I travel through the country. I have always dreamt of doing this. These things will always remind me of the different stages of my road trip.



 Just like the photographs clicked on the way will record the precious and priceless moments for a lifetime. 

There is one more thing, I plan to do. Every night before hitting the sack, I will write about the experiences of the day.



 The essence, that is. Nothing like capturing the actual feel of the moment in words.It adds a whole new dimension to the experience.. gives it a new perspective. 

             

Between the souvenirs and the notebook, I will treasure all my   
memories and savour them till the next road trip !

The next journey on the road will be another chapter in the journey of life and a different experience altogether..

" I took the road less travelled by,
   And that has made all the difference. "
                                                                   Robert Frost

Yes, indeed. Every page of the travel book will narrate a different  story to spice up life !





 facebook.com/AmbiPurIndia

क्या पढ़ेंगे आप ?




अच्छा ये बताइये 
आप क्या पढ़ना पसंद करेंगे ?
नहीं ! नहीं ! ये वो सवाल नहीं 
जो घर आये मेहमान से 
पूछा जाता है ....
क्या लेंगे ?
कॉफ़ी लेंगे या चाय लेंगे ?
या ठंडा शरबत लेंगे ?
चाय दूध वाली 
या ब्लैक टी पसंद करेंगे ?

बिलकुल नहीं !
मेरा सवाल ऐसा नहीं !
मुझे तो सिर्फ जानना है ,
आपकी क्या मनोकामना है ?

आपकी जो चाहना है ,
वही हमें लिखना है .
तो बताइए ,
खिचड़ी या खीर 
क्या परोसें ?
तबीयत क्या कहती है ?

मन की अवस्था के बारे में ?
देश की व्यवस्था के बारे में ?
नदी , नाविक , नौका के बारे में ?
या नाव खेती पतवार के बारे में ?
परिवार , आचार , व्यवहार के बारे में ?
या अपनों के अधिकार के बारे में ?
जन-जन के प्रति सरोकार के बारे में ?
या आत्मबल पर टिके सेवा भाव के बारे में ?
खेल , मनोरंजन , विज्ञान के चमत्कार के बारे में ?
या कला की सार्थकता के बारे में ?
लोगों में बढ़ती दूरियों के बारे में ?
या दिलों को जोड़ती सद्भावना के बारे में ?

आप जो कहिये .
बस बता दीजिये .
हम जो लिखें 
वो आप पढ़ें ,
तब ही तो बात बनती है .
बात एक सिरे से 
दूसरे सिरे तक पहुँचती है .

आखिर हमें तो 
आपकी ही बात 
आप तक पहुँचानी है .
बाकी सब बेमानी है .

तो कहिये 
क्या पढ़ना 
पसंद करेंगे आप ?
यथार्थ का फटा पन्ना ?
या कोरी कल्पना ?




रविवार, 16 जून 2013

कैसे कहोगे ?




कैसे कहोगे ?
कि उससे प्यार है तुम्हें ..
चाँद उतार कर 
उसकी हथेली पर 
रख दो .
या इन्द्रधनुष का ताज 
उसके सर पर 
रख दो .
सितारों के झुमके 
पहना दो .
आसमान को ज़रा-सा 
झुका दो .
हाथ की लकीरों में  
पढ़वा दो .
बिना कहे 
सब कुछ बता दो .

तुम्हें पता है क्या ?
दिल से दिल तक एक 
ख़ुफ़िया रास्ता होता है ,
जिसका पता सिर्फ़  
दिल को होता है .
कहने की भी ज़रुरत है क्या ?
धड़कनों का अफ़साना 
ख़ुद-ब-ख़ुद बयाँ होता है .


 

शनिवार, 8 जून 2013

सबसे बड़ी खबर





जीवन की उठा-पटक 
एकरस .
हलचल नहीं दूर तक .
नीरस .
हर दिन अपने को दोहराता हुआ .
वही पुराने पाठ का रट्टा लगता हुआ .
ऐसे में हम सभी 
ढूंढते है सनसनी 
टीवी रिपोर्ट में ..
अखबार में छपी 
वारदात में ..
जीने का रोमांच .
चालू फ़िल्मी गीतों में 
इस पल का रोमांस .
क्या ज़रा भी नहीं 
हमारी अपनी ज़िन्दगी 
दिलचस्प ?
हमारी अपनी खबर 
भी तो बन सकती है 
इस घंटे की 
सबसे बड़ी खबर !




शनिवार, 1 जून 2013

नुक्स




हम 
यानी जनता जनार्दन .
दिन पर दिन 
दर्शक बने 
बिना टिकट के 
देखते हैं तमाशा 
राजनीति का .

राजनीति जो 
सत्ता के गलियारों 
में घूम-फिर कर 
अब सेंध मार कर 
घुस बैठी है 
घर-घर में ,
और हथिया लिया है 
जीवन का हर प्रसंग .

राजनीति जो 
भ्रष्टाचार की  
माला जपती है .
राजनीति जो 
अब कोई नीति नहीं 
केवल अनीति है .

और जनता जनार्दन का क्या ?
उसकी भूमिका है क्या ?
उसकी प्रतिक्रिया है क्या ?
उसकी जीवनचर्या है क्या ?

जनता जनार्दन ..
पिले हुए हैं , कोल्हू के बैल की तरह .
पिस रहे हैं , आपाधापी की चक्की में घुन की तरह .
मूक दर्शक हैं ,
चौराहों पर पथराई 
महापुरुषों की मूर्तियों की तरह .
क्या कहें ..
कुछ कर नहीं पाते .
रह जाते हैं 
पिंजरे में पर फड़फड़ाते, चोंच मारते 
पंछी की तरह .

और ईमान की बोली 
हर गली में 
लग रही है .
बड़ा आदमी बड़ा ,
छोटा आदमी छोटा ,
जिसका हाथ जहाँ तक पहुंचा 
अपना हाथ 
साफ़ कर रहा है .
ईमानदारी के उसूल 
अब कोई नहीं हैं .
हाँ तरीके हैं 
बहुत सारे ,
ईमानदारी जताने के ..
काम निकालने के .

इसी व्यावहारिकता के मंच पर 
एक आदमी अकेला खड़ा 
अपनी बात कह रहा है 
मतलब कुछ बक रहा है ,
उसका किस्सा कोई नहीं सुनता .
बड़ी समझदार है ये जनता !

इस आदमी को आप-हम 
सब पहचानते हैं .
इस नस्ल के आदमी अब 
बहुत कम तादाद में 
पाए जाते हैं .
पर कमबख्त !
बाज नहीं आते हैं !
इक्का-दुक्का हर जगह 
मिल ही जाते हैं .

इस आदमी की क्या है लाचारी ?
जो पकड़ कर बैठा है ईमानदारी !
सुनिए श्रीमान ! इस आदमी में ही नुक्स है !
जी तोड़ कर जब तक काम न करे 
इसे चैन नहीं पड़ता !
हर काम को इस तरह है करता 
जैसे जहाँपनाह ! ताजमहल कर रहा हो खड़ा !
इसके साथ एक और बड़ी दिक्कत है !
सीधे , सच्चे , साधारण आदमी का 
ये बड़ा हमदर्द है !   
उसका बेड़ा पार लगायेगा !
उसके बिगड़े काम बनायेगा !

जब सारे शहर की बत्ती गुल हो 
तब इसे देखो !
अपनी मोमबत्ती के उजाले में 
चुपचाप अपना काम करता है .
इसी आदमी के चलते 
दुनिया का काम चलता है .





शनिवार, 25 मई 2013

अकेलापन




फिर वही .

फिर वही 
सूनापन .

फिर वही 
सड़क पर आते-जाते 
लोगों को 
देखना 
एकटक .
फिर वही 
घड़ी में
बार-बार 
देखना 
समय .
फिर वही 
डोर बेल के 
बजने का 
इंतज़ार .
फिर वही 
मोबाइल पर 
चेक करना 
मिस्ड कॉल .

फिर वही 
पलंग पर लेटे-लेटे 
पंखे को 
देखना .

फिर वही 
फ़ेसबुक पर 
दोस्त ढूँढना .
अपनी पोस्ट को 
कितनों ने लाइक किया , 
अधीर होकर गिनना .
फिर वही 
जाने - अनजाने लोगों के 
ट्वीट्स में 
संवाद तलाशना .

फिर वही 
टेबल लैंप का स्विच 
बार - बार ऑन करना 
ऑफ़ करना .
सोचने के लिए 
कोई बात 
सोचना .

फिर वही 
डेली सोप में 
मन लगाना .
धारावाहिक के 
पात्रों में 
अपनापन खोजना .
उनकी कहानी में 
डूबना - उतरना ,
उन्ही के बारे में 
अक्सर सोचना .
फिर वही 
रेडिओ के 
चैनल बदलते रहना .
फिर वही 
सच्ची - झूठी 
उम्मीद बुनना .

फिर वही 
हर बीती बात की 
जुगाली करना .
फिर वही 
वक़्त की दस्तक 
सुन कर 
चौंकना .
फिर वही 
दिन - रात को 
खालीपन के 
धागे से सीना .
फिर वही बेचैनी ,
अनमनापन .

फिर वही 
अकेलापन .


  

बुधवार, 22 मई 2013

हिसाब की डायरी




बड़ी  दिलचस्प है , 
मेरे घर की 
हिसाब की डायरी .
काले रंग की ,
मझोले आकार की 
हिसाब की डायरी .

मज़े की बात है ,
ये एक ही डायरी है 
घर में ,
जिसमें 
घर के हर सदस्य की 
लिखावट मिलेगी .

क्या - क्या खरीदा ..
कितने में खरीदा ..
किसको कितने पैसे दिए .
किसके कितने पैसे खर्च हुए ..
पॉलिसी कब मैच्योर होगी ..
लोन की किश्त कब भरनी होगी ..
कहीं किसी का नंबर नोट है .
कहीं किसी पासवर्ड का उल्लेख है .
ये डायरी नहीं 
माँ की गृहस्थी की 
छोटी तस्वीर है .
जन्मपत्री है ,
इस घर की .

डायरी के हर पन्ने पर 
एक सुविचार छपा है ,
जैसे हर कदम पर 
मील का पत्थर बना है .
मील के पत्थर पर लिखा है,
सफ़र तय होने का हिसाब - किताब .

डायरी के लिए निश्चित है ,
उधर कोने वाली दराज़ .
डायरी में दर्ज हैं 
घर चलाने के उतार - चढ़ाव .
खर्च और कमाई का लेख - जोखा ,
लेन - देन  का समूचा ब्यौरा .   
इस डायरी का हर पन्ना ,
है गृहस्थी की चालीसा .




रविवार, 19 मई 2013

शबरी के बेर




कहाँ राम .. सीता मैया !
और रामराज्य कहाँ  !
इस युग में तो .. सुनो मियाँ !
शबरी के बेर भी .. सचमुच झूठे हैं !

सब अपनी झोली भरते हैं !
रुपये को ही सब भजते हैं !
मतलब के सारे कायदे हैं !
मुखौटों के बड़े फ़ायदे हैं !
अब सज्जन पुरुष सुनो भैया !
बस कथालोक में मिलते हैं !

कहाँ राम .. सीता मैया ! 
और रामराज्य कहाँ  !
इस युग में तो .. सुनो मियाँ ! 
शबरी के बेर भी .. सचमुच झूठे हैं !


यहाँ सीधे - सादे लुटते हैं !
और चलते पुर्जे चलते हैं !
यहाँ आम आदमी पिसता है !
और नेता ठाठ से जीता है !
अब सेवा, सत्याग्रह भैया !
सब चुनावी नुस्खे हैं !

कहाँ राम .. सीता मैया ! 
और रामराज्य कहाँ  !
इस युग में तो .. सुनो मियाँ ! 
शबरी के बेर भी .. सचमुच झूठे हैं !


बच्चों का दूध मिलावटी है !
खुशहाली भी सजावटी है !
यारों का जतन दिखावटी है !
नाहक ही लागलपेटी है !
जो ईमान पे जीते हों भैया !
वो यदा-कदा ही मिलते हैं !


कहाँ राम .. सीता मैया !
और रामराज्य कहाँ  !
इस युग में तो .. सुनो मियाँ !
शबरी के बेर भी .. सचमुच झूठे हैं !





शुक्रवार, 17 मई 2013

टीन के गमले



लोकल ट्रेन की 

पटरियों के किनारे 
नाले पर बसी बस्ती ..
बस्ती के घर 
बेपर्दा हैं .
झोंपड़पट्टी के घर 
दड़बे जैसे ,
निहायत ही ज़रूरती 
सामान से भरे .
फ़र्श साफ़-सुथरे ,
आले में 
बर्तन चमकते हुए ,
और टीन के डब्बों में 
पौधे खिले हुए ..
अपनी अस्मिता का 
दावा ठोकते हुए ..
एक चुनौती हैं -
मुफ़लिसी से पैदा हुई 
मायूसी के लिए .
सबूत हैं -  
जीवन की उर्वरता का .
प्रमाण हैं -
इस बात का कि  
जीने और खिलने की निष्ठा 
शुद्ध आबोहवा की भी 
मोहताज नहीं .
जड़ पकड़ने भर को 
बस मुट्ठी भर मिट्टी चाहिए .
टीन के डिब्बों में 
रत्न से जड़े हैं ,
छोटे - छोटे ये पौधे 
जिद्दी बड़े हैं .
डट कर 
जी रहे हैं . 


रविवार, 12 मई 2013

कह डालो




बेबस दिल का गुबार निकालो ,
झट से इक कविता लिख डालो .
और किसी से कहो न कहो ,
कविता में सब कुछ कह डालो .

शब्दों को अपना मित्र बना लो .
भावों को सारथी बना लो .
मन के द्वन्द सकल मथ डालो .
कविता में सब कुछ कह डालो .

बासी बातों को धूप दिखा दो .
आस की चुनरी रंगवा लो .
स्मृतियों की गठरी खोल डालो .
कविता में सब कुछ कह डालो .

झाड - पोंछ कर साफ़ करा लो .
मन में पूजा का दीप जला लो .
जो लिखा वही नैवेद्य चढ़ा दो .
कविता में सब कुछ कह डालो .



रविवार, 28 अप्रैल 2013

इतनी सी बात पर



जिस तरह डाली पर फूल हौले - हौले हिलते हैं .
जिस तरह सूखे पत्ते धीरे - धीरे झरते हैं .
जिस तरह पानी की बूँद पत्ते पर ठहरती है .
बस इतनी - सी बात पर 
शायर नज़्म लिखते हैं .  

जिस तरह बारिश मूसलाधार बरसती है .
जिस तरह पहली बौछार के बाद मिट्टी सौंधी - सौंधी महकती है .
जिस तरह बूंदों की क्यारियाँ - सी धरती पर बनती हैं .
जिस तरह बरखा एक राग धीमे - धीमे गुनगुनाती है .
बस इतनी - सी बात पर 
शायर नज़्म लिखते हैं .

जिस तरह कोई बात चुप रह कर भी बोलती है .
जिस तरह कोई याद मन को निरंतर मथती है .
जिस तरह कोई अहसास ऊनी शॉल - सा लिपट जाता है .
बस इतनी सी बात पर 
शायर नज़्म लिखते हैं .

जिस तरह एक बच्चा मीठा - सा मुस्कुराता है .
अपनी तोतली बोली में दादी की कहानी दोहराता है .
जिस तरह वो एक पल झगड़ता दूसरे पल गले लगाता है .
बस इतनी सी बात पर 
शायर नज़्म लिखते हैं .   







शनिवार, 27 अप्रैल 2013

फूल झरते हैं




मौसम ही है गर्मी का 
आजकल , क्या कहियेगा !
धूप देती है चटका 
तवे जैसा !
गर्म हवा का झोंका 
तबीयत झुलसा गया !
इनसे जूझता - जूझता 
जब सोनमोहर के नीचे से गुज़रा ,
छोटे - छोटे फूल पीले 
पेड़ से झरे , 
मेरे ऊपर गिरे , 
हलके - से छू गए .
कोमल स्पर्श फूलों का 
मानो आश्वस्त कर गया ..
कह गया -
धूप तपाती है ,
गर्म हवा नश्तर चुभाती है ,
पर सुनो , मन छोटा न करो ,
दरख़्त तले दो पल रुक कर देखो ..
इस मौसम में भी 
छाँव का बिछौना 
क्लांत पथिक को बुलाता है .
इस मौसम में ही 
सोनमोहर के फूल झरते हैं . 



शनिवार, 20 अप्रैल 2013

जीवन धुन के स्वर




मैंने देखा ..
चिलचिलाती धूप में 
बांस की बल्लियों पर चढ़ा 
एक मजदूर , 
गा रहा है 
रामचरितमानस की चौपाइयां ,
अपनी धुन में मगन ..
इसी तरह साधता है वो 
अपनी जीवन धुन के स्वर .  



रविवार, 14 अप्रैल 2013

उस लम्हे का सच



आम तौर पर 
जो काम करना 
ग़लत होता है, 
हो सकता है  
किन्ही परिस्थितियों में 
वही काम करना 
सही जान पड़े .
क्योंकि एक सच 
ऐसा भी होता है  
जो सही और ग़लत 
की परिभाषा से 
परे होता है .
ये सच 
सिर्फ अपने 
दम पर 
खड़ा होता है . 
ये सच 
यथार्थ से 
बड़ा होता है . 
ये सच 
उस लम्हे का 
सच होता है .



गुरुवार, 11 अप्रैल 2013

वो भी क्या दिन थे




वो भी क्या दिन थे,
आंसू नहीं थमते थे .
उपन्यासों के घटनाक्रम 
रुला देते थे .
उपन्यासों के पात्र 
संगी-साथी होते थे .
कहानी के उतार-चढ़ाव 
मन की नैय्या को देते थे हिचकोले .
किताबों की जिल्द में बंधे थे 
कितने ज्वार भावनाओं के .
वो लिखने वाले ,
जीवन गंगा में,
डुबकी लगा के ,
लिखते थे जो ,
उनके शब्द सजीव होते थे. 

और शेष उम्र के तकाज़े थे .
अनुभूति के कागज़ कोरे थे .
रंग चटख चढ़ते थे. 
और पूरे चढ़ते थे. 
तो क्या वय के साथ सारे 
रंग फीके पड़ गए थे ? 
आंसुओं में भीग के 
गीले कागज़ फट गए थे ?

नहीं . न कागज़ गले थे .
न अक्षर मिटे थे. 
पर बहुत जल्दी हम समझ गए थे ,
उपन्यास के पात्र झूठे नहीं थे .
वे सब परिचित-अपरिचित, अपने - पराये ,
सब अपने थे, आसपास थे .
हमेशा से वे सचमुच के लोग थे .
बस बदले तो नाम मात्र थे .
जो कथानक था .
कथित रूप से काल्पनिक था .
वर्ना , सब कुछ कहीं ना कहीं घटा था .
लेखक किस पात्र को कहाँ 
किस घटनाक्रम से जोड़ता था 
और अंततः जो कहना चाहता था 
या मन में जो भाव जगाता था ,
वही सार्वभौमिक संवेदना का सूत्र था ;
जो लेखक की कलम को पेंट - ब्रश बना देता था .
और पाठक के अवचेतन को कैनवस बना देता था .

उस उम्र में जब मन पर मनों 
जीवन संघर्ष की गर्द परत दर परत 
जमी नहीं थी ,
रंग सारे सच्चे और गहरे चढ़ते थे .
इसीलिए तब ही जान लिया था -
काल्पनिक कथा में जितना सच था ,
जीवन यथार्थ को उतना 
अच्छी तरह समझा देता था .

वो भी क्या दिन थे .
जब उपन्यासों ने हमें 
संवेदनशील बनाया .
जीवन को परखना 
और सराहना सिखाया .

वो भी क्या दिन थे .
जब आंसू नहीं थमते थे .

वो भी क्या दिन थे .
जब किताबों के पन्ने 
मन पर छपते थे .






रसरंग



कोयलिया ने 
मधुर गीत सुना कर 
प्रस्ताव रखा -
चलो, जीवन को 
सरस बनाते हैं .

नव पल्लव झूम उठे 
सुन कर,
सहर्ष, करतल ध्वनि की।
रंगों की पिचकारी छूटी . 

वसंत के रंगों में खिले,
हर फूल ने 
सिर हिला कर,  
और खिल कर 
प्रस्ताव का अनुमोदन किया .

जीवन का पन्ना-पन्ना,
मन के कैनवस का कोना-कोना 
रंग दिया .

और सबने 
खट्टे-मीठे 
आम सरीखे 
जीवन के हर अनुभव का 
स्वाद लिया .

समस्त सृष्टि ने 
समवेत स्वर में 
कहा -
जीवन चखने को मिला 
इतना ही बहुत नहीं क्या ?
उस पर इतने रंगों की छटा 
मन बावरा नहीं होगा क्या ?

स्वाद और रंगों से सराबोर 
ये मौसम कभी बीते ना !
मौसम बीते , ऋतु बदले ,
रंग जो चढ़े , कभी छूटे ना !