किसी भी
गाँव, गली, कूचे में
अचानक,
बचपन की महक
चुपके से आ कर
लिपट जाती है ।
वैसे,
ठीक-ठाक कहना
मुश्किल है,
क्या अभिप्राय है
'महक' से ।
शायद ये
बारिश की पहली
बौछार के बाद की
मिट्टी की
सौंधी - सौंधी
महक है ।
या चूल्हे पर सिकती,
अम्मा के हाथ की
करारी रोटी की,
भूख जगाती
महक है ।
या फिर
मंदिर में मिले
प्रसाद के दोने की
मीठी महक है ।
कौन जाने
शायद ये
दोपहर भर खेलने के
बाद पसीने से भीगी
कमीज़ की
नमकीन सी
महक है ।
कुछ चीज़ें
बिना नाम के भी
पहचानी जाती हैं ।
कभी - कभी
यूँ ही
दस्तक दे जाती हैं ।
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