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शुक्रवार, 7 नवंबर 2025

उन बातों का क्या ?


उन बातों का क्या ?

जो तुमने कहनी चाहीं,

जो हमने सुननी चाहीं,

पर ऐसा हो ना पाया ।


क्या शब्दों में ही

बात कही जा सकती है ?

अभिव्यक्ति का और कोई 

माध्यम नहीं है ?


सुना है मौन की भी

भाषा होती है ।

बिना कुछ कहे भी

भावना व्यक्त होती है ।


सृष्टि का प्रत्येक कण

हर पल कुछ बोलता है ।

अस्तित्व में होना ही

उसका मुखर होना है ।


ऐसी भी आती है घङी

ईश सम्मुख होता है,

मन में होती है प्रार्थना

मुरली वाला सुनता है ।


मोहन मन में बसता है ।

छल से भीतर आता है ।

माखनचोर कहलाता है ।

चित्त चुरा के ले जाता है ।


बुधवार, 5 नवंबर 2025

झिलमिल हिलमिल दीपशिखा


मतवाला जो निकल पङा है

सुख-दुख बाँटने जग भर का,

कभी कम न हो उसके पथ का

आलोक मार्ग दिखाने वाला !


सुख-दुख का जब हो प्रतिदान

मन रखना एक बात का ध्यान,

बस दीप अनगिनत बालते जाना

ज्योत सद्भाव की जलाए रखना ।


जगमग जगमग जब दीपमालिका

झिलमिल हिलमिल करे उजाला,

सूरज, चंदा, तारे, मिट्टी का दिया

ज्योतिर्मय कर दें हर निर्जन कोना ।


झुलसाती लपट बन गई दीपशिखा

मेटने तम अज्ञान, स्पृहा, विषाद का ,

छोटे-छोटे दियों की सजा अल्पना

पर्व प्रकाश का मना रहा मतवाला !



रविवार, 2 नवंबर 2025

जागो


मन के अंधियारे 

दूर भगाओ ।

दीप जलाओ ।

देव जागे,

तुम भी जागो !

अपने भीतर झाँको !

खो बैठे जो

उसे ढूँढ कर लाओ !

घुप्प अंधेरा हो तो

ख़ुद मशाल बन जाओ !

जग में उजियारा लाओ !

जागो, जागो, दीप जलाओ !

अथवा स्वयं दीप बन जाओ!


शनिवार, 18 अक्टूबर 2025

सफ़ाई के बहाने


दीपावली से पहले

धुंआधार सफ़ाई में

कई भूले-बिसरे 

स्मृति चिन्ह मिले ।

मुस्कुराते हुए झाँकते

सामान के बीच से ।

चंदा बादल हटा के

चुपके से देखे जैसे।


जब सारा दिन बीते 

घर झाङते-बुहारते,

सहसा मिल जाए

बीते दिनों से आके

कोई पीठ थपथपाए ..

और कान पकङ के

बुलवाए सारे पहाङे !


गणित के आंकङे

जब-तब बदलते रहे,

पर उन्हें हल करने के

तरीके काम बहुत आए ।

बक्स में सबसे नीचे मिले 

सवाल हल किए हुए ।

सारे अध्यापक याद आए।

किसी न किसी मोङ पे

सीखे हुए पाठ सामने आए ।


जोङे हुए पेन, रबर, सिक्के,

फ़ोटो जो धुंधले हो चुके।

मुसे हुए दुपट्टे गठजोङे के ।

बच्चों के सबसे पहले खिलौने ।

ऑटोग्राफ़ से भरे कॉपी के पन्ने ..

हस्तलिखित चिट्ठियों के पुलिंदे ।

गए ज़माने के बेशुमार किस्से

द्वार अवचेतन के खटखटाने लगे ।


त्यौहार की तैयारी को फ़िजूल कहें

वो लोग मनोविज्ञान कहाँ समझे ?

जब तक घर और मन के अछूते कोने

स्वच्छ न होंगे, देव विराजेंगे कैसे ?

पुराने विदा न किए तो नये आएंगे कैसे ?

संभवत: दर्पण की धूल साफ़ करते-करते 

अपना ही अक्स साफ़ नज़र आने लगे,

रिश्तों को धूप दिखाने का मन हो आए !

इसी बहाने ख़ुद से भी मुलाक़ात हो जाए !


सोमवार, 13 अक्टूबर 2025

पावन पदचिन्ह


घर-घर के द्वार पर

मंदिर के निकट

अल्पना में अंकित

शुभ श्री चरण ..

माँ लक्ष्मी के माथे पर

दमकता पूर्ण चंद्र 

नील नभ के ताल मध्य

जैसे खिला हो कमल !

अमावस और पूनम

सृष्टि का क्रम अनवरत,

नयनों में भर लेना मन

स्निग्ध चाँदनी का पीयूष।

निशा के चंद्र बनो मेरे मन

ऐसे कि उजियारी हो रैन ,

वंशी सुन हो जाए मगन,

शीतल बयार बन.. पाओ चैन ।

अंतर्दृष्टि से रस-रास अवलोकन ,

पथ प्रकाशित करें पावन पदचिन्ह ।


 

शनिवार, 11 अक्टूबर 2025

हर रंग में खुशरंग रहना


जब आता है भूकंप 

थरथरा उठती है पृथ्वी !

ज़मीन फट जाती है !

चट्टानों में पङ जाती है दरार !

फिर भी इस दरार से इक दिन

अंकुर फूटता है ..


जीवन का चक्र फिर से घूमता है ।

क्योंकि जीवन ऐसा ही होता है !

जीने का मार्ग ढूँढ ही लेता है ।

ख़त्म जहाँ होता है..

फिर शुरु वहीं से होता है हर बार !


शर्त एक ही है जीने की

हिम्मत कभी न हारना !

और ना ही हारने देना !

किसी बेगाने या अपने को ।

ठोकर लग जाए तो हाथ बढ़ा देना ।

कोई बिखर जाए तो गले लगा लेना ।

किसी अपरिचित से भी हाल पूछ लेना ।

अगर नज़र मिल जाए तो मुस्कुरा देना ।

दो मीठे बोल और अपनापन बङी दवा है !

जाने कितने डूबतों को थाम लिया है ।


जब झिंझोङ जाए कोई दुस्वप्न,अनुभव बुरा

मदद माँगने से तुम भी ना हरगिज़ कतराना ।

बुरे वक्त में साथ किसी का देना,साथ रहना ।

सबसे बङी दौलत है खुश रहना और रखना ।

मानवता की शोभा है संवेदना । याद रखना ।

फीके रंगों से भी सहस्र रंगों का राग बुनना ।

 


शुक्रवार, 10 अक्टूबर 2025

धूप-छाँव में पनपे रिश्ते

शिकायतें मुझे भी हैं तुमसे

नाराज़गी तुम्हें भी हैं मुझसे

हम तुम बिन रह नहीं सकते

तुम्हें भी साथ रहना है हमारे

यदि हम उन खूबियों को देखें

जिनकी वजह से हम-तुम जुङे

एक-दूसरे की छाँव में सुस्ता लें

आपस में तपती धूप भी बाँट लें

गुरुवार, 9 अक्टूबर 2025

पता.. पता है


डाक शब्द में ही जादू है ।

लिफ़ाफ़ा एक पुल है ।

डाक टिकट उम्मीद है 

जिसपे भरोसे का ठप्पा है ।


मेघदूत समान है डाकिया ।

सदैव दुख-सुख का वाहक,

घंटी बजाता,आवाज़ देता

बेन सायकल पर आता है ।


बहुत सी ऐसी बातें हैं

जो कहते नहीं बनती हैं ।

जब लिख दी जाती हैं

इतिहास गढ़ सकती हैं ।


डाक से हर आदमी का

रूहानी नाता है ।

दुनिया भर को जोङता

भावनात्मक धागा है ।


अभिव्यक्ति की धुरी है,

चिट्ठी मौन संवाद है ।

काग़ज़ कलम स्याही है,

दो पतों का वार्तालाप है ।


तकनीक सर्वोपरि है ।

पर डाक इनसे परे है । 

जो आस से धङकते हैं, 

उन पतों को सब पता है ।


मंगलवार, 7 अक्टूबर 2025

जो जाग रहा होगा


सारा जग जाग रहा 

ताक रहा ठगा सा,

रजत रुप चंद्रमा का

शरद पूर्णिमा का !


आएंगी लक्ष्मी माँ

कलश लिए अपना,

चंद्रकिरण ज्योत्सना

कर रही उपासना ।


माँ के पदचिन्ह का

दरस यदि हो पाना

शुभ अल्पना आंकना

मंगल दीप बालना ।


जो जागता होगा

जाग्रत जिसकी चेतना,

अमृत आस्वादन वरेगा

वही श्री संपन्न होगा ।



शनिवार, 27 सितंबर 2025

महिषासुरमर्दिनी


कहानी है ये उन दिनों की

कहलाती जो शारदीय नवरात्रि

जब पीहर आती हैं भगवती

पाठशाला की बज उठी घंटी


भागी-दौङी बच्चों की टोली 

बस्ता सँभालती कक्षा पहुँची

जब आई भीतर टीचर दीदी

समवेत स्वर में दी गई सलामी


आते ही मुङ कर चाॅक उठाई

ब्लैक बोर्ड पर इक छवि बनाई 

विशाल शंख-सी आँखों वाली 

देवी माँ जिनकी सिंह सवारी


एक स्वर में चहक उठी फुलवारी

जय माता की बोली कक्षा सारी

बारी-बारी से सबने कथा सुनाई 

आखिर में प्रश्नों की बारी आई!


महिषासुरमर्दिनी देवी माँ कहलाईं 

क्यों कथा अब भी जाती दोहराई 

अब भी महिषासुर है क्या दीदी ?

उत्तर में दीदी बोली बूझो पहेली !


सोच कर बताओ कौनसी बुराई 

तुमको लगती महिषासुर जैसी ?

क्या सब बच्चे कर पाते पढाई ?

क्या सभी जगहों में है सफ़ाई ?


महिषासुर माने कोई भी बुराई 

बाढ़, अकाल, डर, बेइमानी..

मैदान में जो डट कर करे लङाई

उसकी रक्षा करने आती है माई 


बच्चों के मन में दीदी ने की गुङाई

और सोच का इक बीज बो गई 

बच्चे बने माँ की सेना के सिपाही

नवदुर्गा कथा अब समझ में आई 


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चित्र अंतरजाल से आभार सहित

सोमवार, 22 सितंबर 2025

माँ के आगमन का गान


माँ तुम्हारा आगमन जान 

जगत हुआ दैदीप्यमान !

दीप हुए प्रज्ज्वलित स्वत:

तुम्हारी कृपा की ऊष्मा पाकर

सजग हुआ समस्त भूतल ..

पुष्प पल्लव प्रफुल्ल सहज

स्वागत में पंक्तिबद्ध खिल कर,

अर्पित करते सुगंधित रंग प्रसंग,

सुवासित बयार का नमस्कार 

जगत जननी माँ दुर्गा को हो स्वीकार।

 

दूर करो माँ अंतर का अंधकार 

शुद्ध अंत:करण से कर सकूँ नमन ।

तेज से तुम्हारे नष्ट हों मनोविकार,

आलोकित भुवन में खुलें मन के द्वार

चतुर्दिक हो नवीन ऊर्जा का संचार !

करुणामयी माँ ऐसा देना आशीर्वाद 

ह्रदय घट में भर देना संवेदना अपार ।

 

भोर का गान करता माँ का आह्वान,

सुप्त स्वर जागे हुआ नभ गुंजायमान ।

ढाक की गर्जना के मध्य हो स्थापन

माँ मन में हमारे विराजें तुम्हारे चरण ।

चेतावनी देती तुम्हारी दृष्टि भेदे तम

चित्त में छवि तुम्हारी जगमगाए जगदंब ।


रविवार, 14 सितंबर 2025

हिंदी हम सबको भाती है


हिंदी अपनी-सी लगती है ।

सहज समझ आ जाती है ।

भाषा यह सबकी चहेती है ।

मिसरी की मीठी डली सी है

हर भाषा में घुल जाती है ..

हर भाषा को अपनाती है ।

हर प्रांत में बोली जाती है ।

विश्व भर में सीखी जाती है ।


जब प्रभुत्व की बारी आती है,

विदेशी भाषा चुनी जाती है ।

जिसका रुआब तगङा है !

हर क्षेत्र में डंका बजता है !

ऐसा फ़र्क आदमी करता है ।

भाषा के बाज़ लङाता है ।

लट्ठ की तरह चलाता है ।

भाषा से क्या कोई नाता है ?


भाषा तो बस भाषा ही है ।

बात कहती और सुनती है ।

वर्षा ऋतु की हरियाली है ।

स्वत: उगती, छा जाती है ।

नदी की अविरल धारा है ।

ख़ुद अपनी राह बनाती है ।

भाषा का अपना नज़रिया है ।

भाषा संस्कार वाहिनी है ।


हिंदी का अपना सलीका है ।

बोलियों का विशाल कुनबा है ।

कई भाषाओं से गहरा रिश्ता है ।

हिंदी का स्वभाव ही ऐसा है ।

हिंदी हर साँचे में ढल जाती है ..

हैदराबादी या मुंबइया हिंदी है !

कोस-कोस लहजा बदलती जाती है,

हिंदी हमारी संस्कृति की पहचान है ।



चित्र फ़्रीपिक से साभार 

सोमवार, 8 सितंबर 2025

दुख-सुख का नाता


सुख बरसता है

वर्षा की तरह ।

भूमि में समा जाता है,

पोर पोर नम करता

धरा को करता तृप्त!

धौंकनी में फूँकता प्राण ।

संजीवनी औषधि समान ।


दुख पसर जाता है ।

शिराओं में पैठता,

पोर पोर पिराता,

बना रहता है ..

टीस की तरह

नहीं होता सहन,

प्रसव की पीङा

समान छटपटाता है ।

पर रहने नहीं देता बंजर,

दुख करता है सृजन ।


सुख पोसता है ।

दुख जगाता है । 

दुख और सुख का

जन्म से ही नाता है ।


गुरुवार, 4 सितंबर 2025

भक्त और भगवान




छोटा तन का आकार
एक कर में लिए कमंडल 
वपु वेश धर छलने आए
द्वार पर वामन भगवान 
लेने राजा बलि से दान ।
राजा बलि अति विनम्र 
दान सदा देने को तत्पर,
अश्वमेध यज्ञ का यजमान
सत्ता ने कर दिया भ्रमित,
जो माँगें देने को तैयार।
गुरु ने किया सावधान पर 
भक्त का दृढ़ था संकल्प ।
तेजस्वी विप्र ने माँगा तत्क्षण 
बस तीन पग भूमि का दान ।
बलि ने सहर्ष किया स्वीकार ।
नारायण ही थे वामन भगवान!
एक पग में नापा समस्त भूलोक
दूजे पग में समेटा सकल ब्रम्हांड..
अब तीसरा पग रखूँ कहाँ राजन ?
बलि चरणों में हुआ नतमस्तक,
कहा, मेरे शीश पर करुणानिधान
अपने चरणकमल को दें विश्राम ।
जो जीता था, सब कुछ गया हार, 
शरणागत को प्रभु चरण शिरोधार्य !
राजा बलि ने गहे नारायण के चरण ।
चरण वरण भक्त के जीवन का सार ।