दीपावली से पहले
धुंआधार सफ़ाई में
कई भूले-बिसरे
स्मृति चिन्ह मिले ।
मुस्कुराते हुए झाँकते
सामान के बीच से ।
चंदा बादल हटा के
चुपके से देखे जैसे।
जब सारा दिन बीते
घर झाङते-बुहारते,
सहसा मिल जाए
बीते दिनों से आके
कोई पीठ थपथपाए ..
और कान पकङ के
बुलवाए सारे पहाङे !
गणित के आंकङे
जब-तब बदलते रहे,
पर उन्हें हल करने के
तरीके काम बहुत आए ।
बक्स में सबसे नीचे मिले
सवाल हल किए हुए ।
सारे अध्यापक याद आए।
किसी न किसी मोङ पे
सीखे हुए पाठ सामने आए ।
जोङे हुए पेन, रबर, सिक्के,
फ़ोटो जो धुंधले हो चुके।
मुसे हुए दुपट्टे गठजोङे के ।
बच्चों के सबसे पहले खिलौने ।
ऑटोग्राफ़ से भरे कॉपी के पन्ने ..
हस्तलिखित चिट्ठियों के पुलिंदे ।
गए ज़माने के बेशुमार किस्से
द्वार अवचेतन के खटखटाने लगे ।
त्यौहार की तैयारी को फ़िजूल कहें
वो लोग मनोविज्ञान कहाँ समझे ?
जब तक घर और मन के अछूते कोने
स्वच्छ न होंगे, देव विराजेंगे कैसे ?
पुराने विदा न किए तो नये आएंगे कैसे ?
संभवत: दर्पण की धूल साफ़ करते-करते
अपना ही अक्स साफ़ नज़र आने लगे,
रिश्तों को धूप दिखाने का मन हो आए !
इसी बहाने ख़ुद से भी मुलाक़ात हो जाए !
शनिवार, 18 अक्टूबर 2025
सफ़ाई के बहाने
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