शनिवार, 18 अक्टूबर 2025

सफ़ाई के बहाने


दीपावली से पहले

धुंआधार सफ़ाई में

कई भूले-बिसरे 

स्मृति चिन्ह मिले ।

मुस्कुराते हुए झाँकते

सामान के बीच से ।

चंदा बादल हटा के

चुपके से देखे जैसे।


जब सारा दिन बीते 

घर झाङते-बुहारते,

सहसा मिल जाए

बीते दिनों से आके

कोई पीठ थपथपाए ..

और कान पकङ के

बुलवाए सारे पहाङे !


गणित के आंकङे

जब-तब बदलते रहे,

पर उन्हें हल करने के

तरीके काम बहुत आए ।

बक्स में सबसे नीचे मिले 

सवाल हल किए हुए ।

सारे अध्यापक याद आए।

किसी न किसी मोङ पे

सीखे हुए पाठ सामने आए ।


जोङे हुए पेन, रबर, सिक्के,

फ़ोटो जो धुंधले हो चुके।

मुसे हुए दुपट्टे गठजोङे के ।

बच्चों के सबसे पहले खिलौने ।

ऑटोग्राफ़ से भरे कॉपी के पन्ने ..

हस्तलिखित चिट्ठियों के पुलिंदे ।

गए ज़माने के बेशुमार किस्से

द्वार अवचेतन के खटखटाने लगे ।


त्यौहार की तैयारी को फ़िजूल कहें

वो लोग मनोविज्ञान कहाँ समझे ?

जब तक घर और मन के अछूते कोने

स्वच्छ न होंगे, देव विराजेंगे कैसे ?

पुराने विदा न किए तो नये आएंगे कैसे ?

संभवत: दर्पण की धूल साफ़ करते-करते 

अपना ही अक्स साफ़ नज़र आने लगे,

रिश्तों को धूप दिखाने का मन हो आए !

इसी बहाने ख़ुद से भी मुलाक़ात हो जाए !


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