मुस्तकबिल
जिंदगी में
हमेशा
दो विकल्प होंगे
तुम्हारे सामने.
एक होगा
आसान,
जाना - पहचाना ..
सब कुछ वैसा ही होगा,
जैसा तुम चाहोगे.
पर शायद तुम समझ ही नहीं पाओगे
कि तुम आख़िर चाहते क्या हो ..
दूसरा विकल्प होगा
बिल्कुल मुश्किल,
अपरिचित,
अच्छी - बुरी संभावनाओं की
हाट लगाये बाट जोहता.
ना जाने जीवन की नैया
किस ठौर पहुंचाएगा ..
पर तय है इतना,
तुझे ख़ुद से वाक़िफ़ ज़रूर कराएगा.
तू ख़ुद को जान पायेगा,
प्यार कर पायेगा.
चुनो !
और अपना मुस्तकबिल
ख़ुद तय करो !
noopuram
सोमवार, 5 जुलाई 2010
रविवार, 4 जुलाई 2010
असंभव
कैसे ?
पत्थरों के बीच
कोपल फूटती है ?
दीवार की दरार के
बीचों - बीच
कोमल पौधा
पनपता है ?
हवा की थपकी से
हौले-हौले हिलते हुए
बोध कराता है,
असंभव कुछ भी नहीं.
noopuram
कैसे ?
पत्थरों के बीच
कोपल फूटती है ?
दीवार की दरार के
बीचों - बीच
कोमल पौधा
पनपता है ?
हवा की थपकी से
हौले-हौले हिलते हुए
बोध कराता है,
असंभव कुछ भी नहीं.
noopuram
शुक्रवार, 2 जुलाई 2010
रिश्ते
देखते - देखते
ना जाने कब
सारे फ़र्नीचर पर
धूल की तह
जम गई.
आँख की नमी
बर्फ़ हो गयी.
धमनियों में
खून की
रवानी
थम गई.
बालकनी में
फूली बेल
मुरझा गई.
बरनी के अचार में
फफूंद लग गई.
हंसती - गुनगुनाती
चारदीवारी पर
चुप्पी छा गई.
दोपहर में दो पल
झपकी-सी आ गई थी ..
बस इतने में ही
बदल गया सब कुछ ?
शाम हो चली
ठंडी हवा बह रही..
ये सब सोच कर जी
बेहद घबराता है.
पर जो हो ही गया
उसे भुला
नए सिरे से
संसार संवारना
मुझे
आता है.
चोट खाकर संभलना,
टूटी माला के मोती पिरोना,
नए बटन टांकना,
फटी जेबें सिलना,
हर हफ्ते जाले उतारना,
घर का कोना कोना
साफ़ रखना,
फटे दूध का
छेना बनाना,
फ्यूज़ ठीक करना,
छोटी - मोटी मरम्मत करना ..
सब आता है
मुझे.
अब वो बात नहीं रही,
पर कोई बात नहीं.
जो भी बचा है उसे
बड़े ठाठ से,
लगा कर कलेजे से,
जीना आता है मुझे.
noopuram
देखते - देखते
ना जाने कब
सारे फ़र्नीचर पर
धूल की तह
जम गई.
आँख की नमी
बर्फ़ हो गयी.
धमनियों में
खून की
रवानी
थम गई.
बालकनी में
फूली बेल
मुरझा गई.
बरनी के अचार में
फफूंद लग गई.
हंसती - गुनगुनाती
चारदीवारी पर
चुप्पी छा गई.
दोपहर में दो पल
झपकी-सी आ गई थी ..
बस इतने में ही
बदल गया सब कुछ ?
शाम हो चली
ठंडी हवा बह रही..
ये सब सोच कर जी
बेहद घबराता है.
पर जो हो ही गया
उसे भुला
नए सिरे से
संसार संवारना
मुझे
आता है.
चोट खाकर संभलना,
टूटी माला के मोती पिरोना,
नए बटन टांकना,
फटी जेबें सिलना,
हर हफ्ते जाले उतारना,
घर का कोना कोना
साफ़ रखना,
फटे दूध का
छेना बनाना,
फ्यूज़ ठीक करना,
छोटी - मोटी मरम्मत करना ..
सब आता है
मुझे.
अब वो बात नहीं रही,
पर कोई बात नहीं.
जो भी बचा है उसे
बड़े ठाठ से,
लगा कर कलेजे से,
जीना आता है मुझे.
noopuram
कुल जमा पाई
पुरानी फोटो
पुरानी डायरीयों
पुरानी चिट्ठियों
पुरानी स्मृतियों
पुरानी सारी बातों को,
जोड़ कर,
घटा कर,
हिसाब लगाया है ...
अतीत का बड़प्पन
भविष्य का बोध
कुल जमा पाया है.
जो हासिल हुआ है,
माथे से लगाया है.
noopur bole
पुरानी फोटो
पुरानी डायरीयों
पुरानी चिट्ठियों
पुरानी स्मृतियों
पुरानी सारी बातों को,
जोड़ कर,
घटा कर,
हिसाब लगाया है ...
अतीत का बड़प्पन
भविष्य का बोध
कुल जमा पाया है.
जो हासिल हुआ है,
माथे से लगाया है.
noopur bole
बुधवार, 30 जून 2010
ख़बर
हाँ.
तुम्हारा
ईमेल मिला.
तुम्हारा
ख़त मिला.
फ़ोन पर
झटपट
बात भी हुई.
इक्का-दुक्का
मुलाक़ात भी हुई.
पर
तुम्हारी
कोई
ख़बर नहीं मिली.
nupuram@gmail.com
हाँ.
तुम्हारा
ईमेल मिला.
तुम्हारा
ख़त मिला.
फ़ोन पर
झटपट
बात भी हुई.
इक्का-दुक्का
मुलाक़ात भी हुई.
पर
तुम्हारी
कोई
ख़बर नहीं मिली.
nupuram@gmail.com
बुधवार, 9 जून 2010
सोमवार, 7 जून 2010
Old Age
Old age
is such a sweet
and sad thing
at once.
Sweet in
listening patiently ..
so protective and loving ..
and above all
forgiving.
Sad in
depending upon others
who do not have the patience
or the time
to pay attention
to their childlike
whims and fancies.
noopurbole.blogspot.com
Old age
is such a sweet
and sad thing
at once.
Sweet in
listening patiently ..
so protective and loving ..
and above all
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or the time
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ज़िम्मेदार कौन है ?
इस दुनिया में
दो तरह के
लोग होते हैं .
एक वो
जो देने की हैसियत रखते हैं,
दूसरे वो
जो ज़रूरतमंद होते हैं .
एक वो
जो हुकूमत करते हैं ,
दूसरे वो
जो हुक्म बजाते हैं .
हैसियत रखने वाले
हुकूमत करने वाले
नचाते हैं
जिस दुनिया को
लट्टू की तरह,
वो दुनिया
चलती है
हुनरमंद और ज़रूरतमंद के
बल पर .
है ना मज़े की बात ये ?
ज़िम्मेदार कौन है इसके लिए ?
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इस दुनिया में
दो तरह के
लोग होते हैं .
एक वो
जो देने की हैसियत रखते हैं,
दूसरे वो
जो ज़रूरतमंद होते हैं .
एक वो
जो हुकूमत करते हैं ,
दूसरे वो
जो हुक्म बजाते हैं .
हैसियत रखने वाले
हुकूमत करने वाले
नचाते हैं
जिस दुनिया को
लट्टू की तरह,
वो दुनिया
चलती है
हुनरमंद और ज़रूरतमंद के
बल पर .
है ना मज़े की बात ये ?
ज़िम्मेदार कौन है इसके लिए ?
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तलब
सिखाने से
कोई कुछ नहीं
सीखता .
अनुभव
जब चढ़ाता है सान पर
आदमी को ,
तराशता है तेज़ धार पर
ज़िंदगी को,
तब
सीखने की तलब होती है .
ये तलब
सिखाती है
आदमी को
जीना .
सिखाने से
कोई कुछ नहीं
सीखता.
अनुभव सिखाता है जीना.
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सिखाने से
कोई कुछ नहीं
सीखता .
अनुभव
जब चढ़ाता है सान पर
आदमी को ,
तराशता है तेज़ धार पर
ज़िंदगी को,
तब
सीखने की तलब होती है .
ये तलब
सिखाती है
आदमी को
जीना .
सिखाने से
कोई कुछ नहीं
सीखता.
अनुभव सिखाता है जीना.
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मंगलवार, 9 मार्च 2010
सौ रुपये का एक नोट
एक दिन
तुम्हें देखा था
चुपचाप अपना
काम करते
लगन से ..
और बहुत अच्छा लगा था.
तुम्हारी छोटी-छोटी बातों से
निश्छल चुहलबाज़ियों से
एक अनबूझा
नाता जुड़ गया था.
फिर एक दिन
तुमने पूछा था -
मुझे अपना रास्ता
चुनना है ..
या तो हवा का झोंका
बन कर
खुले आसमान में
उड़ना है,
या फिर
दरख़्त बन कर
तेज़ हवाओं से
जूझना है.
मुझे पता है आप
ये नहीं बताएंगी
कि क्या करना है,
पर मुझे आपसे सुनना है
कि आपको क्या लगता है ?
हवा से बातें करना
और हवा के साथ बहना,
इन दोनों के
मायने हैं क्या ?
मेरे लिए ज़रूरी है जानना
कि मुझे रास आएगा
कौनसा रास्ता ?
जवाब तो मुझे भी नहीं था पता,
और तुमने ये प्रश्न पूछा भी नहीं था.
मुझे क्या आता था तुम्हें समझाना ?
बस मुझे तुम पर था इतना भरोसा
और मन था कहता ..
पच्छिमी और पुरबिया हवाओं का
लेखा-जोखा रखना
बहुतों को आता होगा,
पर तुम्हें जो ईश्वर ने हुनर है दिया,
वही तुम्हारी तदबीर और तक़दीर बनेगा.
मन जो कहता था कह दिया,
और तुमने भी समझ लिया.
अपनी खूबी पर भरोसा किया,
और अपना फैसला खुद किया.
पंछी को सबसे अच्छी तरह
आता है उड़ना
और तुमको था पसंद हमेशा,
अपनी आवाज़ से
बाज़ीगर का खेल रचाना,
बातें करना,
सबको हंसाना.
फिर एक दिन ऐसा भी आया
मेहनत के बल पर तुमने
अपना छोटा-सा मक़ाम बनाया.
.. अच्छा लगता है जब
काम में बेहद मसरूफ़
तुम्हारे पास वक़्त ही नहीं होता
किसी और बात के लिए.
तुम्हारी ज़िद है बस..
दिन रात
सीखना और.. सीखना.
.. अच्छा लगता है.
और फिर एक दिन तुम्हें
सामने खड़ा पाया.
क्या दूं और क्या कहूँ तुमसे
कुछ भी समझ ना आया.
इतने में तुमने हाथ में
एक सौ का नोट थमाया
और बस इतना बताया ..
नए काम की पहली तनख्वाह से
आपके लिए ..
आपके लिए और भैय्या - भाभी के लिए ..
आशीर्वाद दीजिये.
इतना सब करना
तुम्हें याद रहा !
और तो किसी ने कभी
ऐसा नहीं किया !
तुमने ये सब कैसे सोचा ?
सबको नहीं आता,
स्नेह और आशीष का
मान रखना.
तुम सदा ऐसे ही रहना.
मन जो माने वही करना.
मेहनत सतत करते रहना.
और सीधी राह चलना.
सोच कर जाने क्या
तुमने ऐसा किया ..
तुम्हारी भावना ने बाला
मंदिर के आले में दिया.
जब जब मन को
लगेगी ठेस,
जब जब स्वाभिमान पर
होगी चोट,
बहुत काम आएगा
सौ रुपये का एक नोट.
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एक दिन
तुम्हें देखा था
चुपचाप अपना
काम करते
लगन से ..
और बहुत अच्छा लगा था.
तुम्हारी छोटी-छोटी बातों से
निश्छल चुहलबाज़ियों से
एक अनबूझा
नाता जुड़ गया था.
फिर एक दिन
तुमने पूछा था -
मुझे अपना रास्ता
चुनना है ..
या तो हवा का झोंका
बन कर
खुले आसमान में
उड़ना है,
या फिर
दरख़्त बन कर
तेज़ हवाओं से
जूझना है.
मुझे पता है आप
ये नहीं बताएंगी
कि क्या करना है,
पर मुझे आपसे सुनना है
कि आपको क्या लगता है ?
हवा से बातें करना
और हवा के साथ बहना,
इन दोनों के
मायने हैं क्या ?
मेरे लिए ज़रूरी है जानना
कि मुझे रास आएगा
कौनसा रास्ता ?
जवाब तो मुझे भी नहीं था पता,
और तुमने ये प्रश्न पूछा भी नहीं था.
मुझे क्या आता था तुम्हें समझाना ?
बस मुझे तुम पर था इतना भरोसा
और मन था कहता ..
पच्छिमी और पुरबिया हवाओं का
लेखा-जोखा रखना
बहुतों को आता होगा,
पर तुम्हें जो ईश्वर ने हुनर है दिया,
वही तुम्हारी तदबीर और तक़दीर बनेगा.
मन जो कहता था कह दिया,
और तुमने भी समझ लिया.
अपनी खूबी पर भरोसा किया,
और अपना फैसला खुद किया.
पंछी को सबसे अच्छी तरह
आता है उड़ना
और तुमको था पसंद हमेशा,
अपनी आवाज़ से
बाज़ीगर का खेल रचाना,
बातें करना,
सबको हंसाना.
फिर एक दिन ऐसा भी आया
मेहनत के बल पर तुमने
अपना छोटा-सा मक़ाम बनाया.
.. अच्छा लगता है जब
काम में बेहद मसरूफ़
तुम्हारे पास वक़्त ही नहीं होता
किसी और बात के लिए.
तुम्हारी ज़िद है बस..
दिन रात
सीखना और.. सीखना.
.. अच्छा लगता है.
और फिर एक दिन तुम्हें
सामने खड़ा पाया.
क्या दूं और क्या कहूँ तुमसे
कुछ भी समझ ना आया.
इतने में तुमने हाथ में
एक सौ का नोट थमाया
और बस इतना बताया ..
नए काम की पहली तनख्वाह से
आपके लिए ..
आपके लिए और भैय्या - भाभी के लिए ..
आशीर्वाद दीजिये.
इतना सब करना
तुम्हें याद रहा !
और तो किसी ने कभी
ऐसा नहीं किया !
तुमने ये सब कैसे सोचा ?
सबको नहीं आता,
स्नेह और आशीष का
मान रखना.
तुम सदा ऐसे ही रहना.
मन जो माने वही करना.
मेहनत सतत करते रहना.
और सीधी राह चलना.
सोच कर जाने क्या
तुमने ऐसा किया ..
तुम्हारी भावना ने बाला
मंदिर के आले में दिया.
जब जब मन को
लगेगी ठेस,
जब जब स्वाभिमान पर
होगी चोट,
बहुत काम आएगा
सौ रुपये का एक नोट.
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सोमवार, 8 मार्च 2010
सुनो
चलते रहो.
टूटी-फूटी सड़क,
धूल भरी पगडंडी,
एक-एक कर
पार करते रहो.
एक ना एक दिन
वो रास्ता भी आयेगा,
जहां हर तरफ़ होगी
हरियाली
और फूल ही फूल.
चलते रहो.
टूटी-फूटी सड़क,
धूल भरी पगडंडी,
एक-एक कर
पार करते रहो.
एक ना एक दिन
वो रास्ता भी आयेगा,
जहां हर तरफ़ होगी
हरियाली
और फूल ही फूल.
सोमवार, 1 मार्च 2010
हर कोशिश तेरी इबादत हो
मुबारक हो साहबजादे !
मुबारक हो !!
रोशन रहे
आपकी दुनिया
दुआओं के नूर से !
हर काम में बरक़त हो !
पूरी हर नेक हसरत हो !
जिस भी मक़ाम से
गुजरें आप,
रौनक ही रौनक हो !
साल दर साल
सबने मनाई
सालगिरह आपकी.
इस बार अकेले
साथ अपने
जश्न मनाने की
घड़ी आई.
निकल पड़ो घर से
अकेले,
और चल पड़ो,
जिस तरफ़
सुबह बुलाती हो ..
धूप मुस्कुराती हो.
ये वक़्त है
नयी सोच का,
नयी सोच पर
अमल करने का.
सूरज की हर किरण
मिट्टी में सोये बीज को
जगाती है.
मंदिर की घंटियाँ
याद दिलाती हैं ..
ये समय है प्रार्थना का,
अपने जीवन से संवाद का.
काम पर अपने-अपने,
निकल पड़ा है हर सपना.
तुम भी मेहनत के
बल-बूते पर
सच करो
अपना सपना.
साथ कोई हो ना हो,
तुम तो अपने साथ हो !
अपने साथ हो लो.
चाक कुम्हार का
घूमता रहता है ..
और समय गढ़ता है.
अनुभव की सान पर चढ़ा कर
अपनी समझ पैनी करो.
वो देखो,
एक बच्चा अधनंगा
सड़कों पर पला,
कड़ी मेहनत से
दो वक़्त की रोटी कमाता है.
ना कोई उसे पुचकारता दुलारता है.
ना कोई गोद में बिठाता है.
फिर भी बेशरम ऐसे हंसता-बोलता है,
अपनी धुन में दिन-रात डोलता है,
किस्मत ने जैसे,
बचा के
सबकी नज़र से,
सौंप दी हो उसे
पारसमणि -
और छांव
कल्पवृक्ष की.
क्या इसने
शिव को
विषपान करते देखा था ?
जो सारे आंसू पी गया ?
या इसने
सीखा था मीरा से
विष को अमृत जान पीना
और ईश्वर के भरोसे जीना ?
ज़रा रुको !
इस उधेड़बुन में
उस बच्चे को
पीछे मत छोड़ आना.
उसे पास बुलाना,
दोस्त बनाना,
और उसकी कच्ची हंसी
निष्पाप दृष्टि से जानना ..
कि जब दो जून की रोटी का
ठिकाना नहीं,
सर पर छत नहीं,
पाँव में चप्पल नहीं,
आगे-पीछे कुछ भी नहीं ..
तब
कहीं पड़े मिले कंचे भी
कुबेर के ख़ज़ाने से कम नहीं !
दो मीठे बोल जो बोल दे
वो भगवान से कम नहीं !
फटी-पुरानी चादर और दरी
उड़न खटोले से कम नहीं !
और चूल्हे पर सिकी रोटी
अलादीन के चिराग से कम नहीं !
क्योंकि जीवन की हर संभावना
भरपेट खाने से जुड़ी है.
क्या सोचते हो ?
क्या हमारा भी कोई फ़र्ज़ बनता है ?
आज शाम जब अपने साथ बैठो,
यादों और इरादों के पन्ने पलटो,
तो जितना मिला है
उतने का शुक्रगुज़ार होना.
रोज़ के हिसाब-किताब में
कुछ समय, सोच और पैसे
उस बच्चे के लिए भी रखना.
इस बार सालगिरह पर अपनी
अकेले हो तो क्या हुआ ?
जो अकेला है,
उसके साथ हो लेना.
मुबारक हो साहबजादे !
मुबारक हो !!
रोशन रहे
आपकी दुनिया
दुआओं के नूर से !
हर काम में बरक़त हो !
पूरी हर नेक हसरत हो !
जिस भी मक़ाम से
गुजरें आप,
रौनक ही रौनक हो !
साल दर साल
सबने मनाई
सालगिरह आपकी.
इस बार अकेले
साथ अपने
जश्न मनाने की
घड़ी आई.
निकल पड़ो घर से
अकेले,
और चल पड़ो,
जिस तरफ़
सुबह बुलाती हो ..
धूप मुस्कुराती हो.
ये वक़्त है
नयी सोच का,
नयी सोच पर
अमल करने का.
सूरज की हर किरण
मिट्टी में सोये बीज को
जगाती है.
मंदिर की घंटियाँ
याद दिलाती हैं ..
ये समय है प्रार्थना का,
अपने जीवन से संवाद का.
काम पर अपने-अपने,
निकल पड़ा है हर सपना.
तुम भी मेहनत के
बल-बूते पर
सच करो
अपना सपना.
साथ कोई हो ना हो,
तुम तो अपने साथ हो !
अपने साथ हो लो.
चाक कुम्हार का
घूमता रहता है ..
और समय गढ़ता है.
अनुभव की सान पर चढ़ा कर
अपनी समझ पैनी करो.
वो देखो,
एक बच्चा अधनंगा
सड़कों पर पला,
कड़ी मेहनत से
दो वक़्त की रोटी कमाता है.
ना कोई उसे पुचकारता दुलारता है.
ना कोई गोद में बिठाता है.
फिर भी बेशरम ऐसे हंसता-बोलता है,
अपनी धुन में दिन-रात डोलता है,
किस्मत ने जैसे,
बचा के
सबकी नज़र से,
सौंप दी हो उसे
पारसमणि -
और छांव
कल्पवृक्ष की.
क्या इसने
शिव को
विषपान करते देखा था ?
जो सारे आंसू पी गया ?
या इसने
सीखा था मीरा से
विष को अमृत जान पीना
और ईश्वर के भरोसे जीना ?
ज़रा रुको !
इस उधेड़बुन में
उस बच्चे को
पीछे मत छोड़ आना.
उसे पास बुलाना,
दोस्त बनाना,
और उसकी कच्ची हंसी
निष्पाप दृष्टि से जानना ..
कि जब दो जून की रोटी का
ठिकाना नहीं,
सर पर छत नहीं,
पाँव में चप्पल नहीं,
आगे-पीछे कुछ भी नहीं ..
तब
कहीं पड़े मिले कंचे भी
कुबेर के ख़ज़ाने से कम नहीं !
दो मीठे बोल जो बोल दे
वो भगवान से कम नहीं !
फटी-पुरानी चादर और दरी
उड़न खटोले से कम नहीं !
और चूल्हे पर सिकी रोटी
अलादीन के चिराग से कम नहीं !
क्योंकि जीवन की हर संभावना
भरपेट खाने से जुड़ी है.
क्या सोचते हो ?
क्या हमारा भी कोई फ़र्ज़ बनता है ?
आज शाम जब अपने साथ बैठो,
यादों और इरादों के पन्ने पलटो,
तो जितना मिला है
उतने का शुक्रगुज़ार होना.
रोज़ के हिसाब-किताब में
कुछ समय, सोच और पैसे
उस बच्चे के लिए भी रखना.
इस बार सालगिरह पर अपनी
अकेले हो तो क्या हुआ ?
जो अकेला है,
उसके साथ हो लेना.
संभावना
मन की मिट्टी को
सूखने मत देना .
बंजर भूमि पर
कुछ नहीं उगता .
सींचते रहना
मन की मिट्टी को
धीरे - धीरे
आंसुओं से,
ओस की बूँद जैसे
पावन विश्वास से .
आँख जब नम होगी,
किसी के मन की
पीड़ा समझेगी ,
तब ही
भावुक मन की
उर्वर भूमी से
फूटेगा अंकुर.
अंततः
फूल
खिलें ना खिलें,
बड़ा होगा
नन्हा पौधा,
फूल खिलने की
संभावना लिए .
मन की मिट्टी को
सूखने मत देना .
बंजर भूमि पर
कुछ नहीं उगता .
सींचते रहना
मन की मिट्टी को
धीरे - धीरे
आंसुओं से,
ओस की बूँद जैसे
पावन विश्वास से .
आँख जब नम होगी,
किसी के मन की
पीड़ा समझेगी ,
तब ही
भावुक मन की
उर्वर भूमी से
फूटेगा अंकुर.
अंततः
फूल
खिलें ना खिलें,
बड़ा होगा
नन्हा पौधा,
फूल खिलने की
संभावना लिए .
शनिवार, 27 फ़रवरी 2010
धुकधुकी
चलो हाथ पकड़ो !
दोनों मिल कर,
फिरकी लेते हैं
तेज़ी से !
.. लट्टू की तरह !
.. पृथ्वी की तरह !
देखें ..
चारों तरफ़ घूमती दुनिया
हमसे कितनी तेज़
चक्कर लगाती है !
या फिर यूँ ही इतराती है !
ज़िन्दगी जो रोज़ हमें नचाती है !
हमारे साथ चकराती
कैसी नज़र आती है !
छूट ना जाये !
कस कर पकड़ना हाथ !
हाँ ! ये हुई ना कुछ बात !
एक-दूसरे के भरोसे,
एक-दूजे के साथ,
कुछ करने की
और ही है बात !
पैर धरती पर जमा कर ..
जैसे मथनी चला कर ..
जीवन की धुरी पर थिरक कर,
हर श्वास पर जप कर,
जिजीविषा का गीत ..
चख लें
चिंतन के मंथन का
नवनीत !
धिनक धिनक धिन ..
धिनक धिनक धिन ..
जी में एक धुन
ले रही है फिरकी..
कर रही है ठिठोली ..
कहो तो सुनाऊं !
खुशी भी
जुगनू की रोशनी सी
आँख-मिचोली है .
एक पल दीये सी टिमटिमाती है
और पलक झपकते गुम भी हो जाती है !
यही तो जीवन की अठखेली है !
कभी ना बूझी जाये वो पहेली है !
पर सुनो !
बूझ कर भी क्या होगा ?
जो होना है वही होगा !
हमारे साथ हमारा भवितव्य चलेगा .
बहरहाल इस पल का सच यही है
कि हमारे साथ ज़िंदगी भी
चक्रम हो रही है !
हमारे कलेजे की
धुकधुकी
तेज़ हो रही है !
और कह रही है -
इस पल का हासिल यही है
कि लकीरें
तेरी-मेरी हथेली की
आपस में जुड़ रही हैं,
मैं तेरी
और तू मेरी
सहेली है .
चलो हाथ पकड़ो !
दोनों मिल कर,
फिरकी लेते हैं
तेज़ी से !
.. लट्टू की तरह !
.. पृथ्वी की तरह !
देखें ..
चारों तरफ़ घूमती दुनिया
हमसे कितनी तेज़
चक्कर लगाती है !
या फिर यूँ ही इतराती है !
ज़िन्दगी जो रोज़ हमें नचाती है !
हमारे साथ चकराती
कैसी नज़र आती है !
छूट ना जाये !
कस कर पकड़ना हाथ !
हाँ ! ये हुई ना कुछ बात !
एक-दूसरे के भरोसे,
एक-दूजे के साथ,
कुछ करने की
और ही है बात !
पैर धरती पर जमा कर ..
जैसे मथनी चला कर ..
जीवन की धुरी पर थिरक कर,
हर श्वास पर जप कर,
जिजीविषा का गीत ..
चख लें
चिंतन के मंथन का
नवनीत !
धिनक धिनक धिन ..
धिनक धिनक धिन ..
जी में एक धुन
ले रही है फिरकी..
कर रही है ठिठोली ..
कहो तो सुनाऊं !
खुशी भी
जुगनू की रोशनी सी
आँख-मिचोली है .
एक पल दीये सी टिमटिमाती है
और पलक झपकते गुम भी हो जाती है !
यही तो जीवन की अठखेली है !
कभी ना बूझी जाये वो पहेली है !
पर सुनो !
बूझ कर भी क्या होगा ?
जो होना है वही होगा !
हमारे साथ हमारा भवितव्य चलेगा .
बहरहाल इस पल का सच यही है
कि हमारे साथ ज़िंदगी भी
चक्रम हो रही है !
हमारे कलेजे की
धुकधुकी
तेज़ हो रही है !
और कह रही है -
इस पल का हासिल यही है
कि लकीरें
तेरी-मेरी हथेली की
आपस में जुड़ रही हैं,
मैं तेरी
और तू मेरी
सहेली है .
मंगलवार, 23 फ़रवरी 2010
रंगरेज़
तुम बातों के रंगरेज़ हो .
जिस रंग में चाहो ,
रंग दो ,
अपनी बातों को .
रंग फीका ना हो .
चोखा हो ,
चटकीला हो ,
पर पक्का हो !
जब चढ़े तो
मन में तरंग हो !
पग चंग, मृदंग, पतंग हो !
जब रचे तो
मेहंदी, हल्दी ..
रोली, ठिठोली ..
टेसू, गुलमोहर ..
फागुन की फुहार ..
इन्द्रधनुष हो !
तुम बातों के रंगरेज़ हो .
ऐसे रंग में रंग दो
अपनी बातों को ,
मानो हर सोच
एक छंद हो .
तुम बातों के रंगरेज़ हो .
जिस रंग में चाहो ,
रंग दो ,
अपनी बातों को .
रंग फीका ना हो .
चोखा हो ,
चटकीला हो ,
पर पक्का हो !
जब चढ़े तो
मन में तरंग हो !
पग चंग, मृदंग, पतंग हो !
जब रचे तो
मेहंदी, हल्दी ..
रोली, ठिठोली ..
टेसू, गुलमोहर ..
फागुन की फुहार ..
इन्द्रधनुष हो !
तुम बातों के रंगरेज़ हो .
ऐसे रंग में रंग दो
अपनी बातों को ,
मानो हर सोच
एक छंद हो .
सोमवार, 22 फ़रवरी 2010
बशर्ते प्यार ...
क्या कहा ?
बुढ़ापे में प्यार !
क्यों भैय्या ?
प्यार का
उम्र से क्या सरोकार !
कुछ रिश्ते
दिन चढ़ते ,
बनते हैं .
कुछ नाते
दिन ढलते
पार्क की बेंच पर बैठे
सूर्यास्त देखते देखते
जुड़ते हैं .
हाँ ये सच है ,
हर उम्र का
अंदाज़ जुदा होता है ;
पर फ़लसफ़ा वही
रहता है .
यानी
कोई फ़लसफ़ा नहीं
होता है .
तट से बंध कर नहीं,
नदी का पानी
ख़ुद-ब-ख़ुद
रवां होता है .
होता है
पानी वही,
पर कहलाता है कभी
पहाड़ी झरना ..
और इसी पानी का
एक दिन
किनारों ने देखा
चुपचाप बहना .
दोनों को देखना
लगता है भला .
अहम है पानी का साफ़ होना,
फिर क्या नदी .. क्या झरना .
क्यों रहे सूना, मन का कोई कोना .
सहज है हर उम्र में, प्यार होना .
अभी
बस देर मत करो .
जो करना है -
कर डालो,
अभी .
बस देर मत करो .
जो कहना है -
कह डालो,
अभी .
अभी से अच्छा वक़्त
फिर नहीं आएगा .
जो देना है - समय
इस दम दे कर जायेगा .
रविवार, 21 फ़रवरी 2010
दृष्टिकोण
ज़रूरी नहीं
कि
हर सवाल का
जवाब मिलेगा .
ना सही .
पर ढूँढ़ते ढूँढ़ते
नया कोई
रास्ता
मिलेगा .
ज़रूर.
ज़रूरी नहीं
कि
हर सवाल का
जवाब मिलेगा .
ना सही .
पर ढूँढ़ते ढूँढ़ते
नया कोई
रास्ता
मिलेगा .
ज़रूर.
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