रोज़ सुबह
दस सैंतालीस पर
दरवाज़ा खटखटाता है,
मेरा एक ख़्वाब।
दरवाज़ा ना खोलो,
तो चिल्लाता है वो
इतनी ज़ोर से कि
कान के पर्दे ही नहीं,
आत्मा के तार भी
उठते हैं झनझना !
कहीं फिर से
सो जाऊं ना..
भूल कर ख़ुद
अपना ही ख़्वाब!
घंटाघर के घंटे जैसे
उधेङ देते हैं नींद
एक झटके में,
हर दिन सुबह
दस सैंतालीस पर,
मेरे फ़ोन की घङी में
बज उठता है अलार्म,
याद दिलाने के लिए
कि अभी बाकी हैं करने
बहुत ज़रुरी काम ।
एक बार झल्ला कर
मैंने पूछा भी था,
कब तक चलेगा ?
यह टोकना रोज़ाना
देना उलाहना,
और झकझोर कर जगाना,
याद दिलाना,
"समय चूक की हूक"
और मुंह पर
बोल देना दो टूक
जो कर दे नेस्तनाबूद !
वक़्त ने पलट कर देखा
जैसे मुश्किल हो पहचानना
मेरा चेहरा-मोहरा
और बातों का जखीरा ..
सुनो , तुम ही हो ना ?
जिसने कहा था
काम सौंपा था ,
जब स्वयं से मुँह फेरते देखो,
तुरंत मुझे फटकारना !
खरी-खोटी सुनाना पर
चुनौती देने से मत चूकना !
मेरे साथ-साथ चलना सदा
बन कर मेरा साया,
जो अँधेरे में भी नहीं होता जुदा !
मत खेलने देना जुआ !
दाँव पर मत लगाने देना
मुझे अपना ख्वाब ..
ख़्वाब सच हों इसके लिए
होना पङता है सजग
कमाना पङता है विश्वास,
और करना पङता है
अथक प्रयास।
ऐसे ही नहीं बन जाते
स्वप्नों के महल !
तंद्रा झकझोर कर
बिस्तर छोङ कर पहले
खोदनी पङती है नींव,
पक्की नींव पर ही
खङे होते हैं दरो-दीवार ।
फिर बनते हैं रोशनदान,
खिङकियाँ हवादार ।
उसके बाद रहने वालों के
दिलों में बसा प्यार और सरोकार ।
तब जाकर होता है गुलज़ार ..
... ख़्वाबघर ।