मंगलवार, 25 दिसंबर 2018

मोहब्बत के माप का ..


परदेस जाते बेटे ने
बड़े लाढ़ से पूछा है,
क्या लाऊं तुम्हारे लिए ?
तुम्हें चाहिए कुछ वहां से ?

बेटे ने पूछ क्या लिया ..
दिमाग़ खोजी हो गया !
ऐसा क्या मंगाया जाए
जो तसल्ली हो जाए !

याद आई वो बुढ़िया
जिससे गणेशजी ने
प्रसन्न होकर पूछा था
मांग क्या मांगती है मैया !

बुढ़िया ने जो सूझा
सब कुछ मांग लिया
गणेशजी ने हँस कर कहा
माँ तूने तो हमें ठग लिया !

ऐसा ही कुछ मंगाया जाए
लाने वाले का मन रह जाए
और अपने भी काम आए
कोई कसर ना रह जाए !

क्यों बेटा ? बड़ी जगह है ना ?
वहां तो सब कुछ मिलता होगा ?
सामान जो पैसों के मोल मिले
और वो जो पैसों से भी ना मिले ?

कपड़ा-लत्ता, तरह-तरह के गहने,
छोड़ ! अब दिन ही कितने बचे ?
ओढ़ने-पहनने,सजने-संवरने के ?
खाने-पीने के भी अब दिन गए ।

अमां बड़ी दिक्कत है ये सोचने में
आख़िर कोई कमी हो तो कहें ना !
अच्छा सुनो भई दिल छोटा ना करना !
कोई दिलचस्प अजूबा मिले तो ले लेना !

कोई अजूबा रहेगा पास तो जी बदलेगा ।
आने-जाने वालों का तांता लगा रहेगा ।
मजमा तो किस्से-कहानियों से भी जमेगा ।
ले आना थैला-भर, खूब माहौल बनेगा ।

ये ना मिले तो किताबों में रख के
वहां की फूल-पत्तियां ले आना ।
वहां के बाशिंदों की तस्वीरें ले आना ।
चेहरे पढ़ के उनका भी हाल पता चले ।

देखने सुनने में तो आया है बरसों से ये,
सुख-दुख उन्नीस-बीस होते हैं सबके ।
बहुत हो या थोड़ा फ़र्क़ नहीं ज़्यादा,
सभी के हिस्से में है कुछ न कुछ आता ।

चल छोड़ ! ले बैठे कहां का किस्सा !
जो भी देख कर मेरी याद आये ना !
वही थोड़ा-बहुत मोहब्बत के माप का..
और मिले तो बस मुट्ठी भर चैन ले आना ।


बुधवार, 19 दिसंबर 2018

गीता का मनन




गीता का मनन
कर्म का चयन
सार्थक कब होता है ?

जब योगेश्वर कृष्ण से
सखा अर्जुन का अंतर्द्वंद
प्रश्न पूछता है ।

योद्धा अर्जुन को ज्ञात है, 
युद्ध का प्रयोजन
न्याय का संधान ही है ।

पर ह्रदय धिक्कारता है,
मृत्यु का हाहाकार ही क्या
परिणति और मूल्य है न्याय का ?

सृष्टि के क्रम-नियम 
धर्म के साक्षी गोपाल सिवा
कौन उत्तर दे सकेगा ?

एक निष्ठावान श्रोता 
पराक्रमी वीर जब निर्भीक
अधिकार से पूछता है प्रश्न ..

तब पार्थ का सारथी,
भ्रमित किन्तु समर्पित सखा के
काटता है समस्त भव फंद ।

गीता है धर्म संहिता ।
वासुदेव ने अर्जुन को सिखाया
समय पर निर्द्वंद गांडीव उठाना ।

ऐसा ही होता है सदा ।
जब-जब प्रश्न पूछता है अर्जुन,
तब-तब कृष्ण कहते हैं गीता ।

जब निश्छल होता है संवाद  
सर्वदा अपने इष्ट से हमारा, 
जान पड़ता है कौनसा पथ है चुनना ।

सत्पथ पर सत्यव्रत हो चले यदि,
जो शोभा दे, वह विजय मिलेगी ।
नीतियुक्त समृद्धि मिलेगी ।

श्री, विजय, विभूति, नीति, सुमति
इनका इस जगत में ध्येय एक ही 
कर्मभूमि को धर्मक्षेत्र बनाना ।


रविवार, 2 दिसंबर 2018

पीले फूल





बित्ते भर के
पीले फूल !

खिड़की से झांकते
सिर हिला-हिला के
अपने पास बुलाते,
इतने अच्छे लगे...
कमबख़्त !
उठ कर जाना पड़ा !

देखा आपस में
बतिया रहे थे,
राम जाने क्या !

एक बार लगा ये
धूप के छौने हैं ।
फिर लगा हरे
आँचल पर पीले
फूल कढ़े हैं ।
या वसंत ने पीले
कर्ण फूल पहने हैं ।

वाह ! क्या कहने हैं !
ये फूल मन के गहने हैं !

खुशी का नेग हैं !
भोला-सा शगुन हैं ।

इन पर न्यौछावर
दुनिया के व्यवहार ..
कम्बख़्त ये  ..  
बित्ते भर के
पीले फूल !




शनिवार, 1 दिसंबर 2018

अभिनंदन




आज का दिन
हुआ बेहतरीन !

गए हफ़्ते
जो बीज बोए थे,
उस मिट्टी में
अंकुर फूटे हैं
नन्हे-नन्हे ।

बड़ी लगन से
सींचे थे
जो कुम्हलाते पौधे,
उनकी डाली पे
कोमल कोपल हरी-हरी
अभी देखी ।

एक कली है खिली हुई,
एक खिलने को है ।

धूप खिली-खिली
फूलों को हँसा रही ।
पत्तियां ताज़ी-ताज़ी
हाथ हिलाती,
अभिवादन करतीं
धूप का दे-दे ताली ।

ख़ुशगवार है मौसम
कम से कम इस पल ।

जिन दिनों
स्थगित हो जाता है जीवन ।
अपने बोये बीज का
अंकुरित होना,
अपने सींचे
पौधों पर फूल खिलना,
मुरझाए मन में
बो देता है मुस्कान ।
खिल उठता है अंतर्मन ।
फिर गुनगुनाने लगता है जीवन ।

जीवन का सदा ही
अभिनंदन ।

मंगलवार, 20 नवंबर 2018

रंग



कोरी मटकी देख कर
मन करता है
खड़िया-गेरू से
बेल-बूटे बना दूँ ।

कोरा दुपट्टा देख कर
मन करता है
बांधनी से
लहरिया रंग डालूँ ।

खाली दीवार देख कर
मन करता है
रोली के
थापे लगा दूँ ।

कोरा कागज़ देख कर
मन करता है
वर्णमाला से
वंदनवार बना दूँ ।

उजड़ी क्यारी में फूल खिला दूँ ।
वीराने में बस्ती बसा दूं ।
चौखट पर दिया जला दूं ।
आंगन में अल्पना बना दूं ।
हाथों में मेंहदी लगा दूँ ।
माथे पर तिलक कर दूँ ।
दूधिया हँसी को डिठौना लगा दूँ ।
भोलेपन को नज़र का टीका पहना दूँ ।
खेतों में मीलों सरसों बिछा दूँ ।

रंग से सराबोर
इस दुनिया का
कोई भी कोना
क्यों रहे कोरा ?


रविवार, 18 नवंबर 2018

जल छंद




फूल पत्तियों पर ठहरी
जल की एक बूंद
क्षणभंगुर है,
जीवन की तरह ।


पर उस एक क्षण में ही
सुंदरतम है ।


एक श्वास भर की
प्रांजल छवि है
अंतरतम की ।


इस एक पुलकित 
जल छंद पर
न्यौछावर है
सारा जीवन ।






शुक्रवार, 16 नवंबर 2018

जो साथ चल दे




कविता तो वो है
जो झकझोर कर
जगा दे ।

कविता तो वो है
जो अपना
मंतर चला दे ।

कविता तो वो है
जो थपकी देकर
सुला दे ।

कविता तो वो है
जो जीवन को मधुर
रागिनी बना दे ।

कविता तो वो है
जो पाषाण में
प्राण प्रतिष्ठा कर दे ।

नव ग्रह चाँद सितारे
आकाश से टूटते तारे
सबसे मित्रता करा दे ।

कविता तो वो है
जो मनचले वक़्त की
नब्ज़ पढ़ना सिखा दे ।

कविता तो वो है
जो बहकने पर   
हाथ पकड़ कर
रोक ले ।

कविता तो वो है
जो डटे रहने का
साहस दे ।

कविता तो वो है
जो संवेदनशील बनाये ।

कविता तो वो है
जो जीवन
छंद में ढाल दे ।

कविता तो वो है
जो ध्रुव तारा बन
पथ प्रशस्त करे ।

कविता तो वो है
जो नतमस्तक कर दे ।

या फिर कविता वो है
जो कंधे पर हाथ रख 
घंटों बात समझाए,
और साथ चल दे ।