मंगलवार, 20 नवंबर 2018

रंग



कोरी मटकी देख कर
मन करता है
खड़िया-गेरू से
बेल-बूटे बना दूँ ।

कोरा दुपट्टा देख कर
मन करता है
बांधनी से
लहरिया रंग डालूँ ।

खाली दीवार देख कर
मन करता है
रोली के
थापे लगा दूँ ।

कोरा कागज़ देख कर
मन करता है
वर्णमाला से
वंदनवार बना दूँ ।

उजड़ी क्यारी में फूल खिला दूँ ।
वीराने में बस्ती बसा दूं ।
चौखट पर दिया जला दूं ।
आंगन में अल्पना बना दूं ।
हाथों में मेंहदी लगा दूँ ।
माथे पर तिलक कर दूँ ।
दूधिया हँसी को डिठौना लगा दूँ ।
भोलेपन को नज़र का टीका पहना दूँ ।
खेतों में मीलों सरसों बिछा दूँ ।

रंग से सराबोर
इस दुनिया का
कोई भी कोना
क्यों रहे कोरा ?


6 टिप्‍पणियां:

  1. आहा! शब्द ही कागज़ के रंग है। बोहोत सुन्दर उपमा।बोहोत खूब!

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (21-11-2018) को "ईमान बदलते देखे हैं" (चर्चा अंक-3162) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

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  3. वाह्ह्ह.. खूबसूरत मासूम ख़्वाहिश👌

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  4. शास्त्रीजी,अनमोल सा और श्वेता सखी के लिए
    आभार सहित...

    https://youtu.be/DNYsv4ihrXc

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