जब चल ही पङे हैं,
तो पहुँच ही जाएंगे ।
जहाँ पहुँचना चाहते थे वहाँ ,
या रास्ता जहाँ ले चले वहाँ ।
रास्ता भूल भी गए तो क्या ?
एक नया रास्ता बनता जाएगा,
अगर चलने वाला चलता जाएगा ।
चलते-चलते ही तो बन जाते हैं रास्ते,
भले ही ना बने हों हमारे वास्ते ।
रास्तों से निकलते हैं और नए रास्ते,
हथेली की रेखाओं से मिलते-जुलते ।
चलते-चलते आसान होती जाती हैं राहें,
सुलझाते-सुलझाते खुलने लगती हैं गिरहें ।
चित्र साभार : श्री अनमोल माथुर