मंगलवार, 18 मई 2021

गिरिधर


जब तब मैंने 
उलाहना दे दे 
खूब सताया है 
गोविंद को अपने,
रो-रो के व्यर्थ में 
पाथर कह डाला है,
अपने कष्ट के झोंटे में 
कान्हा को ठेल दिया है..
पर गोविन्द ने कब मुँह फेरा है ?
दिवारात्रि अनर्गल प्रलाप को मेरे
शीश पर धर कर कमल शांत किया है ।
केशव तुम्हें ज्ञात है जग में कौन अपना है ।
आसरा एकमेव एकमेव एकमेव बस तुम्हारा है ।
दुख-द्वंद मेरा था गिरिधर पर भार तुमने उठाया है ।


8 टिप्‍पणियां:

  1. केशव तुम्हें ज्ञात है जग में कौन अपना है । बहुत गहन भाव...केशव से वार्तालाप...। बहुत खूब

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  2. आपने बहुत अच्छी पोस्ट लिखी है. ऐसे ही आप अपनी कलम को चलाते रहे. Ankit Badigar की तरफ से धन्यवाद.

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  3. बहुत ही सुन्दर भावपूर्ण सृजन।

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