सोमवार, 1 जून 2020

जड़ें

एक पेड़ का 
धराशायी होना,
टूट कर गिरना,
हतप्रभ कर देता है ।
एक सदमे की तरह
आघात करता है ।
कुछ तोड़ देता है
अपने भीतर ।

एक पेड़ को
ठूंठ बनते देखा
तो लगा,
क्या फ़र्क है,
पेड़ के सूखने
और भावनाओं के
जड़ हो जाने में ?

इसीलिए जब
ठूंठ भी ना रहा,
हृदय की तरल
अनुभूति भी
जाती रही ।

जड़ों के बिना कोई
जी पाता नहीं ।
टिक पाता नहीं ।
पेड़ हो या आदमी ।

सोमवार, 18 मई 2020

दिलो-दिमाग़


जा रहे हो
तुम अपने रास्ते
किसी काम से ।

तभी देखा
रास्ते के किनारे
कोई बेचारा
चोट खाया 
पड़ा हुआ था ।
कोई ना मदद को
आगे आ रहा था ।

दिल बोला
हाथ बढ़ा ।
कर सहायता
अस्पताल पहुँचा ।

दिमाग़ बोला,
क्या फ़ायदा ।
ये ना बचेगा ।
उल्टा तू फँसेगा ।

दिल फिर बोला,
बहाने न बना !
कोशिश तो कर जा
जान बचा !

दिमाग़ फिर अड़ा
कोई न कोई तो
पहुँचा ही देगा ।
तू चल ना !

किसकी सुनोगे भैया ?
कैसे लोगे फ़ैसला ?

सोचने का समय
लिए बिना,
दिल जो पहली दफ़ा
रास्ता बताता है,
सही बताता है ।

रास्ता पार कैसे होगा ?
ये तिकड़म लगाना
दिमाग़ को
बेहतर आता है ।

किसी बात को,
किसी काम को 
हाँ कहना है या 
ना कहना,
ये फ़ैसला लेना
दिल से ।

पर काम को
कैसे करना है, 
ये तय करना
दिमाग़ से ।

दिल की सुनना ।
दिमाग़ से काम लेना ।

शुक्रवार, 8 मई 2020

अंतरंग

ध्वस्त मनःस्थिति
कोई राह सूझती न थी
सन्नाटा पसरा था
बाहर और भीतर
शब्द-शून्य क्षण था
पत्ता भी हिलता न था 
अव्यक्त असह्य पीड़ा का
बादल घुमड़ रहा था ।

इतने में सहसा 
दूर कहीं टिमटिमाया
जुगनू सा
आरती का दिया
और सुनाई दी
घंटी की धीमी ध्वनि ।

भीतर कुछ पिघल गया
एक आंसू ढुलक गया ।
कोई तार जुड़ गया ।
कोई ना था पर लगा
कोई सुन रहा था
समझ रहा था
साथ था सदा।

मंगलवार, 5 मई 2020

सारी लड़ाई


सारी रस्साकशी !
सारी खींचतान !
सारी लड़ाई ..
मुल्कों के बीच ..
संप्रदायों के बीच..
समुदायों के बीच ..
परिवारों के बीच ..
लोगों के बीच ..
रिश्तों के बीच..
अधिकार की नहीं..
न्याय की नहीं ..
सामंजस्य की नहीं..
विरोधाभास की नहीं ..
विचारधारा की नहीं ..
टकराव की नहीं..
पैसे की नहीं ..
सत्ता की भी नहीं ..
आदमी की बसाई
इस बेहतरीन दुनिया की
सारी लड़ाई,
मानसिकता की ..
थी, है और होती रहेगी ।

शनिवार, 2 मई 2020

कविता क्या खाक !


वाह भई वाह !
क्या खूब !
क्या कहने !
छा गए !

बहुत कामयाब रहा !
कवि सम्मेलन तुम्हारा !
लोगों ने बहुत सराहा !
खूब तालियां बजी !
चहुं दिक चर्चा हुई !

पर एक बात बताओ भई !
कब से माथे को मथ रही !

तुमने बात बड़ी अच्छी कही !
पर आचरण में दिखी नहीं !

कविता अगर जी नहीं
तो क्या खाक लिखी !


शनिवार, 25 अप्रैल 2020

मुकम्मल जहाँ


"कभो किसी को 
मुकम्मल जहाँ
नहीं मिलता",
क्योंकि मेरा मुकम्मल
उसके मुकम्मल से
नहीं मिलता ।

तो ये मुकम्मल हुआ -
बेमुक़म्मल जहाँ भी,
है तो आखिर अपना ही !
क्यों ना उसका भी
लुत्फ उठाया जाए !
और एक दूसरे के लिए
एक मुकम्मल जहाँ
तराशा जाए ।

जिस हद तक
मुमकिन हो गढ़ना,
सबके मुताबिक
एक मुकम्मल जहाँ ।


शुक्रवार, 17 अप्रैल 2020

घर पर हैं आजकल


हम अपने घरों में बंद हैं ।
घर एक कमरे से लेकर 
कई कमरों का हो सकता है ।
बेशक़ घर घर होता है ।
घर में रहने वाला अकेला 
या पूरा कुनबा हो सकता है ।
बेशक़ घर घर होता है ।

बंद हैं हम ..पर घर पर हैं ।
रातों रात खानाबदोश ..
बेरोजगार नहीं हो गए ।
खुशकिस्मत हैं वो लोग
जो अपने लोगों के संग 
बीमारी से लड़ने जंग में हैं,
जंग के मैदान में नहीं ।

हमारी जंग भी मामूली नहीं ।
दुश्मन का ठौर-ठिकाना नहीं ।
किससे लङना है पता नहीं ।
पर बेशक़ रहना है चौकन्ना ।
मोर्चे पर दिन-रात मुस्तैद ।

फिर भी वास्तव में हम 
घरों में बंद बेहतर और
बेहतरीन हालात में हैं ।
सर पर हमारे छत तो है ।
काम और जेब में वेतन है ।
हाथ-पाँव अभी चलते हैं ।
दुख बाँटने को कोई है ।
झल्लाने को परिवार है ।
कोसने की फुरसत तो है ।
जी बहलाने को बच्चे हैं ।

पर जिनके पास इन सब में से
कोई एक चीज़ भी नहीं है,
उन पर क्या बीत रही है !!!

अगर फिर भी हमें अफ़सोस है ।
और सिर्फ़ अफ़सोस ही अफ़सोस है,
तो इसमें किसी का भी क्या दोष है ?

ये वक़्त भी बीत ही जाएगा ।
वक़्त की तो फ़ितरत ही है
बीतते बीतते बीत जाने की ।

इस वक़्त की नब्ज़ थामनी है यदि
जुगत लगानी होगी हमें ही ।

तुम देखना वक़्त कभी भी
खाली हाथ नहीं आता ।
बहुत कुछ ले जाता है ऐसा
जिसकी कद्र हमने नहीं की ।
बहुत कुछ बदल कर जाएगा
इस बार भी तुम देखना ।
बहुत कुछ सिखा कर जाएगा 
जो हम खुद नहीं सीख सके ।
मूल्यों का मूल्य समझा कर जाएगा ।

वक़्त की नदी सब बहा कर ले जाएगी
किंतु तट की भूमि उपजाऊ कर जाएगी ।

जिस घर को सब कुछ दाँव पर लगा कर बनाया ।
कुछ दिन उस घर के हर कोने को जी कर देखो ।