मुकम्मल जहाँ
"कभो किसी को
मुकम्मल जहाँ
नहीं मिलता",
क्योंकि मेरा मुकम्मल
उसके मुकम्मल से
नहीं मिलता ।
तो ये मुकम्मल हुआ -
बेमुक़म्मल जहाँ भी,
है तो आखिर अपना ही !
क्यों ना उसका भी
लुत्फ उठाया जाए !
और एक दूसरे के लिए
एक मुकम्मल जहाँ
तराशा जाए ।
जिस हद तक
मुमकिन हो गढ़ना,
सबके मुताबिक
एक मुकम्मल जहाँ ।
किसी का मुकम्मल किसी अन्य के मुकम्मल से नहीं मिलता । ये बात समझ पाना ही मुकम्मल है। वाह
जवाब देंहटाएंधन्यवाद,सा.
हटाएंजगत में जो समझा, सो पार.
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंसदा प्रोत्साहित करने के लिए, हार्दिक आभार शास्त्रीजी.
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (26-04-2020) को शब्द-सृजन-18 'किनारा' (चर्चा अंक-3683) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
चर्चा की नैया पर सवार रचना को मिल जाएगा किनारा.
हटाएंअनंत आभार.
बहुत खूब ,सुंदर सृजन ,सादर नमन
जवाब देंहटाएंबहुत शुक्रिया, कामिनी जी.
हटाएंसादर नमस्ते.
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद, ओंकारजी.
हटाएंबहुत खूब ।
जवाब देंहटाएंबहुत शुक्रिया.
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