शनिवार, 1 सितंबर 2012

खुश रहने के लिए



मुझे 
खुश रहने के लिए
कोई ज़्यादा 
जुगाड़ की ..
कीनखाब 
साज़ो-सामान की
ज़रुरत नहीं .

मुट्ठी भर सपने,
आसपास हों अपने,
बड़ों का आशीर्वाद,
बच्चों की शरारत,
तिल भर भरोसा,
रत्ती भर जिज्ञासा,
प्रेम की घुट्टी,
हिम्मत की बूटी,
दाल-भात या खिचड़ी ,
तवे पर फूली रोटी,
रेडियो पर बजते गाने,
श्रीमतीजी के उलाहने,
दोपहर की झपकी,
सुबह शाम की घुमक्कड़ी ..

कुल मिला कर 
ज़्यादा बखेड़ा नहीं।
यही s s  रोज़ का दाना-पानी 
और छटांक भर 
जीने की मस्ती,
बस काफ़ी हैं मेरे 
खुश रहने के लिए। 

   
 

शनिवार, 21 जुलाई 2012

अब चिट्ठियां नहीं आती




अब चिट्ठियां नहीं आती.

बात जो कहते नहीं बनती,
रह जाती है अनकही 
बिना चिट्ठी..
चिट्ठियां अब नहीं आती।

पुरानी कॉपियों के पन्ने फाड़ कर,
बाबूजी की बढ़िया कलम से,
दोपहर में बैठक के 
कोने में 
बैठ कर,
कुशल - क्षेम पूछ कर,
सजा-सजा कर,
सोच-सोच कर 
जो लिखी जाती थी,
वो चिट्ठियां अब नहीं आती।

डाकखाने जा कर,
चुन-चुन कर
डाक टिकट खरीद कर 
अंतर्देशीय और लिफ़ाफ़े,
पोस्टकार्ड जमा कर के 
रखे जाते थे
चिट्ठियों वाली दराज में .
जब जितनी लम्बी 
लिखनी हो चिट्ठी 
उसी हिसाब से 
अंतर्देशीय और लिफ़ाफ़े 
या पोस्टकार्ड काम में 
लिए जाते थे ।
इतना समझ-बूझ के 
जो लिखी जाती थी 
वो चिट्ठियां अब नहीं आती .

रोज़ाना डाकिये से 
पूछताछ कर के 
खबर ली जाती थी 
आने वाली डाक की .
घर लौटने पर 
दरवाज़ा खोलते ही 
दरवाज़े की संध से सरकायी गई 
पाई जाती थी चिट्ठी 
ज़मीन पर .
पते की लिखावट से 
जो पहचानी जाती थी चिट्ठी ,
बहुत संभल के जो खोली 
जाती थी चिट्ठी ,
और कई कई बार 
जो पढ़ी जाती थी चिट्ठियां,
वो चिट्ठियां अब नहीं आती .


 


अनायास ही



ट्रैफिक के 
बेसुरे और बेशऊर 
शोर के बीच में 
जब अचानक
कोयल की कूक 
सुनाई देती है,
सारा शोर 
सरक कर
जैसे नेपथ्य में 
चला जाता है,
और सोई हुई 
चेतना जैसे 
जाग जाती है ..

अनायास ही।


   

रविवार, 15 जुलाई 2012

कालीदह लीला


कन्हैया की
कालीदह लीला,
जब जब देखी
अंतर में मुखर हुई
यही प्रार्थना ..
हे कृष्ण कन्हैया !
जब-जब मेरे मन में
अनुचित भावों का
नाग कालिया,
फन उठा के,
मेरे विवेक को ललकारे,
तुम इसी तरह आ जाना
दर्प सर्प को वश में करना ।
और नाग नथैया
ऐसा नृत्य करना ..
अंतर झकझोर देना,
ऐसी बांसुरी बजाना  ..
बिखरे सुर जोड़ देना,
सम पर लाकर भले छोड़ देना .

दमन हो अहंकार के विष का,  
ऐसा आत्मबल और भक्ति देना ।


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लीला चित्रण आभार सहित - श्री अनमोल माथुर
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शनिवार, 30 जून 2012

सारथी था बचपन



रेलवे प्लेटफ़ॉर्म पर चादर बिछा कर 
बैठा हुआ था एक परिवार 
अपनी ट्रेन का इंतज़ार करता हुआ।

दो बच्चे
जो शायद भाई थे,
खेल रहे थे।
बाकी सब
सुस्ता रहे थे।
बड़े धैर्य  के साथ 
भीषण गर्मी से 
कर रहे थे 
दो - दो हाथ।

दोनों भाई ,
एक छोटा ..
एक कुछ बड़ा,
मगन थे 
अपने खेल में।
बच्चों के पास था 
एक खिलौना 
और प्लेटफ़ॉर्म का 
एक कोना।

टूटा था -
खिलौना।
प्लास्टिक की,
पीले रंग की,
एक सायकिल थी।
सायकिल भी 
खूब थी यार !
हैंडल,सीट और सवार 
तीनों ही नहीं थे !
पर पहिये थे !

पर पहिये थे.
पहियों के बल पर 
खूब दौड़ रही थी सायकिल 
बच्चों को बहला रही थी सायकिल।
उस टूटी सायकिल से ही 
बड़े खुश थे बच्चे।
उनकी बला से !
हैंडल,सीट और सवार 
नहीं थे !
पहिये तो थे !

पहिये तो थे !
जो दौड़ रहे थे सरपट !

रथचक्र बने थे पहिये 
और सारथी था बचपन। 

रविवार, 6 मई 2012

अकेले ही



सबके रहते हुए भी ,
कुछ युद्ध ऐसे होते हैं 
जो अकेले 
लड़ने पड़ते हैं .

अपनी लक्ष्मण रेखा 
पार करने का 
साहस 
स्वयं करना पड़ता है .

अपनी सीमाओं को 
अपने ही असीमित बल से 
असीम संभावनाओं में 
स्वयं बदलना पड़ता है।

भवितव्य का छल 
खुद ही नियति के 
धक्के खाकर,
अपनी ही हिम्मत के 
बूते पर,
अकेले झेलना पड़ता है,
अकेले ही संभालना पड़ता है ।

एक यात्रा 
अपने ही भीतर 
निरंतर 
एकाकी तय करनी होती है .

अपने ही भीतर 
एक गुफा है 
जिसका सन्नाटा भेद कर 
खुद ही कोई 
सुर ढूँढना पड़ता है।

अपने ही भीतर 
एक टापू है 
जिस पर 
अकेले  खड़े 
हम हैं ;
इस अकेलेपन से 
अकेले 
सामना करना पड़ता है,
नाव खेकर अपनी 
आप ही 
अपना तट खोजना पड़ता है .

अपने ही भीतर 
एक आवाज़ है 
जो सिर्फ हमें सुनाई देती है ,
हमें दुहाई देती है,
वास्ता देती है 
हर अव्यक्त भाव का ,
उपेक्षित बात का .

सबके बीच होकर भी 
अकेले ही 
अपनी कथा की परिणति 
आप ही चुननी होती है .