रेलवे प्लेटफ़ॉर्म पर चादर बिछा कर
बैठा हुआ था एक परिवार
अपनी ट्रेन का इंतज़ार करता हुआ।
दो बच्चे
जो शायद भाई थे,
खेल रहे थे।
बाकी सब
सुस्ता रहे थे।
बड़े धैर्य के साथ
भीषण गर्मी से
कर रहे थे
दो - दो हाथ।
दोनों भाई ,
एक छोटा ..
एक कुछ बड़ा,
मगन थे
अपने खेल में।
बच्चों के पास था
एक खिलौना
और प्लेटफ़ॉर्म का
एक कोना।
टूटा था -
खिलौना।
प्लास्टिक की,
पीले रंग की,
एक सायकिल थी।
सायकिल भी
खूब थी यार !
हैंडल,सीट और सवार
तीनों ही नहीं थे !
पर पहिये थे !
पर पहिये थे.
पहियों के बल पर
खूब दौड़ रही थी सायकिल
बच्चों को बहला रही थी सायकिल।
उस टूटी सायकिल से ही
बड़े खुश थे बच्चे।
उनकी बला से !
हैंडल,सीट और सवार
नहीं थे !
पहिये तो थे !
पहिये तो थे !
जो दौड़ रहे थे सरपट !
रथचक्र बने थे पहिये
और सारथी था बचपन।
बहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंबहुत ही खूबसूरत विश्लेषण बस पढ़ते-पढ़ते पड़ते खुद के बचपन में पहुंच गई ..जहां मैं और मेरे बड़े भैया भी साइकिल के टायर को मारकर दौड़ा करते थे . बचपन ऐसे ही खूबसूरत होता है जहां वह यह नहीं देखता है कि उसकी हाथ में जो खिलौना है..वो टूटा है या फिर ठीक-ठाक है बस उसके बाल सुलभ मन में खिलौने के साथ उस वक्त जो भी प्रतिक्रियाएं होती है बस वही खूबसूरत बचपन होता है....दिल को छू गई आपकी रचना.. पहली बार पढ़ने का मौका मिला पर अब हमेशा आपकी रचनाओं का इंतजार रहेगा
जवाब देंहटाएंवाह नुपुर जी बात ही बात में आपने बचपन का कितना निश्छल भाव प्रेसित किया है ,बच्चे कितनी सहजता से किसी भी वस्तु को अपने मनोरंजन का साधन बना लेते हैं ,चाहे वो कोई कागज़ हो या टूटी साइकिल का पहिया।
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रस्तुति।
बचपन की सहज खुशियां
जवाब देंहटाएंवाह बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएं