अब चिट्ठियां नहीं आती.
बात जो कहते नहीं बनती,
रह जाती है अनकही
बिना चिट्ठी..
चिट्ठियां अब नहीं आती।
पुरानी कॉपियों के पन्ने फाड़ कर,
बाबूजी की बढ़िया कलम से,
दोपहर में बैठक के
कोने में
बैठ कर,
कुशल - क्षेम पूछ कर,
सजा-सजा कर,
सोच-सोच कर
जो लिखी जाती थी,
वो चिट्ठियां अब नहीं आती।
डाकखाने जा कर,
चुन-चुन कर
डाक टिकट खरीद कर
अंतर्देशीय और लिफ़ाफ़े,
पोस्टकार्ड जमा कर के
रखे जाते थे
चिट्ठियों वाली दराज में .
जब जितनी लम्बी
लिखनी हो चिट्ठी
उसी हिसाब से
अंतर्देशीय और लिफ़ाफ़े
या पोस्टकार्ड काम में
लिए जाते थे ।
इतना समझ-बूझ के
जो लिखी जाती थी
वो चिट्ठियां अब नहीं आती .
रोज़ाना डाकिये से
पूछताछ कर के
खबर ली जाती थी
आने वाली डाक की .
घर लौटने पर
दरवाज़ा खोलते ही
दरवाज़े की संध से सरकायी गई
पाई जाती थी चिट्ठी
ज़मीन पर .
पते की लिखावट से
जो पहचानी जाती थी चिट्ठी ,
बहुत संभल के जो खोली
जाती थी चिट्ठी ,
और कई कई बार
जो पढ़ी जाती थी चिट्ठियां,
वो चिट्ठियां अब नहीं आती .
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