गुरुवार, 9 अप्रैल 2020

खूब रंगो !


खूब रंगो
अंतर्मन रंगो
सकल भुवन रंगो
कोरी चूनर रंगो
काग़ज़ रंगो
स्वप्न रंगो
बोल रंगो
सुर रंगो
ताल रंगो
अपनी पहचान रंगो
जितना जी चाहे रंगो
खूब रंगो ! 

अपने रंगो
दूजे रंगो
भाव रंगो
साज रंगो
प्राण रंगो
दरो-दीवार रंगो
खेल-खिलौने रंगो
अपनी भावनाएं रंगो !
जितना जी चाहे रंगो !
खूब रंगो ! 

समय की सांसें रंगो
भवितव्य की गिरहें रंगो
घुमड़ती घटाएं रंगो
बल खाती हवाएं रंगो
जल की हलचल रंगो
नैया की पतवार रंगो
जितना जी चाहे रंगो
जीवन में हर रंग भरो
मेहँदी की तरह रचो !
खूब रंगो ! खूब रचो !

बुधवार, 8 अप्रैल 2020

उपहार

उपहार होते हैं
कई मिज़ाज के ।

एक होते हैं व्यवहार 
निभाने के लिए ।
दूजे होते हैं संवाद 
बढ़ाने के लिए ।

वो कहने के लिए
जो कहते ना बने ।
गिनती के शब्दों में
हरगिज़ बांधे न बंधे ।

कुछ होते हैं
प्यार दुलार में पगे ।
मीठे बताशों से ।

कुछ होते हैं
बात समझाते हुए ।
धैर्य धन से सधे ।

कुछ होते हैं
नटखट मासूम से ।
जग भर से अनोखे ।

और कुछ होते हैं
आशीर्वाद सरीखे ।
मर्म को झंकृत करते ।

ये उपहार होते हैं
खेतों में बोए 
बीज जैसे,
जिनसे उपजती है
लहलहाती फसल ।

औपचारिकता से परे ..
अचानक सूझी
कविता जैसे !
हृदय में टिमटिमाती
आस जैसे ।
बड़े सिर पर रख दें
हाथ जैसे ।


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रिश्ता तो कोई ऐसा ख़ास नहीं. पर उन्हें जय मौसाजी के संबोधन से जाना है. वरिष्ठ एवं प्रतिष्ठित कलाकार ,आर्ट स्कूल के प्रधानाध्यापक, लेखक और अपने सिद्धांतों पर अडिग  व्यक्तित्व के रूप में उन्हें जाना और हमेशा यह तमन्ना रही कि कभी उनसे सीखने का अवसर मिले. वह अवसर तो पा नहीं सके पर अचानक एक दिन उनका भेजा उपहार मिला बिना किसी अवसर के ! चहेते कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की हृदयस्पर्शी पंक्तियाँ इतने सुन्दर स्वरुप में आशीर्वाद की तरह मिलीं. कविता का अक्षय पात्र ! जो चाहे इसमें समेटो ! जो चाहे बांटो !

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बुधवार, 1 अप्रैल 2020

निःशब्द


निःशब्द की होती है 
अपनी एक भाषा,
जिसे हर कोई 
समझ नहीं पाता ।

पहले कुछ भी 
सुनाई नहीं देता ।
होती है 
घबराहट सी ।
क्योंकि रिक्तता
बहुत ज़्यादा 
शोर मचाती है ।
बहुत कुछ शोर में
छुपा देती है ।

फिर एक बोझ-सा
उतर जाता है ।
बोझिल तनाव
शिथिल पड़ जाता है ।

उसके बाद बहुत कुछ
सुनाई देता है ।
जो हमेशा से था,
पर ढका हुआ था ।

अपने ही हृदय का
मद्धम स्पंदन ।
कभी सुनने का
आग्रह कहाँ था ..

पत्तों की सरसराहट
लयबद्ध हिलना,
अभिवादन करना ।
धूप की दिनचर्या ।
छत पर चढ़ना और
सीढ़ी से उतरना।
चंचल गिलहरी का
दौड़ना कुतरना ।
पक्षियों का सुरीला
अंतरंग वार्तालाप ।
समय की पदचाप ।

सुकून भरा घर अपना 
जिसने हमेशा जीवन का
हर व्यतिक्रम झेला ।
करीने से सजा हुआ ।
एक-एक बिसरी बात
स्मरण कराता हुआ ।

कोने में लाचार पड़ा
सामान कसरत का ।
रंगों का पुराना डिब्बा
अंबार किताबों का ।
बाबूजी का बाजा ।

इन सबका उलाहना
सुनाई ही कब दिया ?
जगत के कोलाहल में
निज स्वर खो गया ।

जब बाहर का शोर थमा 
अंतरतम से संवाद हुआ ।
मानो मेले में बिछड़ा हुआ
कोई पुराना मीत मिला ।

बुधवार, 25 मार्च 2020

नव संवत्सर अभिवादन


अब समय आ गया है
पुराने बहीखाते बंद कर
नई जिल्द बंधवाने का ..
पुरानी सिलाई उधेड़ कर
नए धागों से भविष्य बुनने का ।
द्वार पर खड़ा है नव संवत्सर
अभिवादन करें इस बार हम
सविनय देहली पूजन कर ।

सब कुछ ठहर गया है ।
समय चकित खड़ा है ।
अब समय आ गया है,
सारे नियम बदलने का ।
विस्मृत पाठ दोहराने का ।

अब समय आ गया है
सजग सचेत सतर्क होने का ।
स्वयं से प्रश्न पूछने का,
क्या हमें यही चाहिए था
जो विनाश अब मिला है ?
या लक्ष्य भेद हो न सका ?
ध्येय से ध्यान भटक गया ।

अब समय आ गया है
आदतों को बदलने का ।
व्यवधान दूर करने का,
समाधान ढूढने का ।
मनमानी करना काम ना आया ।
प्रकृति ने यह सबक सिखाया,
सीखो मानव आदर करना,
प्रकृति और जीवन चक्र का ।
समय रहते जो मानव समझ गया,
मंगल आगमन होगा नव संवत्सर का ।

मंगलवार, 24 मार्च 2020

तुम सलामत रहो गौरैया


गौरैया तुम सलामत रहो,
दाना चुगने नित आती रहो, 
बड़े शहरों के छोटे घरों में
फुदकने चहकने के लिए ।
क्योंकि तुम हो शुभ शगुन
जीवन का सहृदय स्पंदन ।

तुम जब-जब घर आती हो,
हर बार दिलासा देती हो,
कि अब भी कहीं बचे हैं
हरे-भरे पेड़, बाग-बगीचे,
जिनमें अब भी खेलते हैं 
बच्चे और बुजुर्ग टहलते ।

तुम्हारी बदौलत जान गए
हम अहमियत खिड़की में
संजोए इकलौते पौधे की
हरेक फूल के खिलने की ।

तुम्हारा आना दाना चुगना,
पानी पीना घोंसला बनाना,
जंगले से ताक-झांक करना,
और फिर फुर्र से उड़ जाना,
जी को है बहुत-बहुत भाता
मानो हरसिंगार का झरना ।

बना रहे तुम्हारा आना-जाना,
देखो शहरों को भूल मत जाना !
घर आंगन की रौनक़ बनी रहना
तुम सदा सलामत रहो गौरैया !

शुक्रवार, 20 मार्च 2020

दीवार से सटा फूल खिला



दीवार से सट कर 
खिला हुआ एक पौधा
कैमरा फ़्रेम के बीचोंबीच
अचानक आ खड़ा हुआ,
महा-जिज्ञासु बच्चे सा
टुकुर-टुकुर ताकता हुआ ।
तब हमारा भी ध्यान गया ।

क्यों दीवार से सट कर 
खिला हुआ है ये पौधा ?
सामने तो खुला मैदान था ..
क्या अबीर-गुलाल जब उड़ा
हुड़दंग से बचता हुआ
जिसकी मुट्ठी में रंग था
छोटा-सा बच्चा
ईंट की दीवार से लग कर
खड़ा हो गया ? या ..

क्या कोई नन्हा रूठ कर 
मुँह फुला कर
सबसे दूर जा कर
मुँह फेर कर
जा खड़ा हुआ है ?
ताकि गुस्सा भी ज़ाहिर हो..
नज़रों से ओझल भी ना हो..
कोई टॉफी देकर बहला ले !
खुशामद कर के मना ले !

रूठने के मासूम बहानों में 
भोला बचपन छलकता है ।
अनायास ही खिले फूल में
अंतरतम खिल उठता है ।

गुरुवार, 6 फ़रवरी 2020

बापू की पेंसिल


मेरे प्यारे बापू
तुम्हें पता तो होगा
दुनिया में कितनी 
अफ़रा-तफ़री
मची हुई है 
इन दिनों ।

जंगलों में
आग लग रही है ।
वृक्ष पशु पक्षी
ख़त्म हो रहे हैं ।
बाढ़ आ रही है कहीं ।
सूखा पड़ रहा है कहीं ।
ग्लेशियर पिघल रहे हैं ।
समंदर गरमा रहे हैं ।
मौसम बेमौसम बदल रहे हैं ।
फसलों पर ओले पड़ रहे हैं ।
प्रकृति डाँवाडोल है ।
मनुष्य अत्यंत भ्रमित है ।

ऐसे में तुम्हारी छोटी-सी
पेंसिल याद आ रही है,
जो मिल नहीं रही थी..
और तुम ढूंढे जा रहे थे ।
सब समझा रहे थे तुम्हें,
बापू आपकी पेंसिल तो 
खत्म होने को ही थी !
दूसरी पेंसिल ले लीजिए !
पर अपना अमूल्य समय
उसे ढूंढने में मत गंवाइए !
और तुम हँस दिए थे ।
कोई भी चीज़ जब तक 
काम आ सके तब तक
इस्तेमाल करनी चाहिए ।
फेंकनी नहीं चाहिए ।

बापू तुम कैसे समझ गए थे ?
एक दिन अपनी फेंकी हुई
बेकार मान ली गई चीजें ही
विकराल रूप धर लेंगी
और हमें निगल जाएंगी !

बापू हम में से बहुत सारे
तब भी नहीं समझे थे,
अब भी समझ नहीं पा रहे,
आधुनिक बहुलता के फेर में थे ।
अब भी सो-सो कर जाग रहे ।

बापू तुम थे दूरदृष्टा ।
तुमने जान लिया था,
महत्व संतुलन का
और इस नियम का ..
प्रकृति से लो जितना
कम से कम दो उतना
या उससे भी ज़्यादा
जिससे मंगल हो सबका ।