दाना चुगने नित आती रहो,
बड़े शहरों के छोटे घरों में
फुदकने चहकने के लिए ।
क्योंकि तुम हो शुभ शगुन
जीवन का सहृदय स्पंदन ।
तुम जब-जब घर आती हो,
हर बार दिलासा देती हो,
कि अब भी कहीं बचे हैं
हरे-भरे पेड़, बाग-बगीचे,
जिनमें अब भी खेलते हैं
बच्चे और बुजुर्ग टहलते ।
तुम्हारी बदौलत जान गए
हम अहमियत खिड़की में
संजोए इकलौते पौधे की
हरेक फूल के खिलने की ।
तुम्हारा आना दाना चुगना,
पानी पीना घोंसला बनाना,
जंगले से ताक-झांक करना,
और फिर फुर्र से उड़ जाना,
जी को है बहुत-बहुत भाता
मानो हरसिंगार का झरना ।
बना रहे तुम्हारा आना-जाना,
देखो शहरों को भूल मत जाना !
घर आंगन की रौनक़ बनी रहना
तुम सदा सलामत रहो गौरैया !
कड़क। वायरस ने फिर दिखा दिया, ये धरती कितनी सुंदर है। शांत है। अगर हम इसे ना छेड़ें तो। गौरैया कुछ दिनों के लिए महफूज़ है, अब उसकी बातें हार्न की पी पों से छुप नहीं जाती।
जवाब देंहटाएंपर क्या हम ऐसा होने दे सकते हैं ?
हटाएंएक ठूंठ-सा रसहीन जीवन जीना कौन चाहता है ?
जैसे "दीना का लाल" मचल उठा था चंद के लिए ...
क्हयों ना हम भी ज़िद पर अड़ जाएं कि गौरैया चाहिए !
बहुत सुन्दर सृजन 👏 👏
जवाब देंहटाएंधन्यवाद, सुधा जी.
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (25-03-2020) को "नव संवत्सर-2077 की बधाई हो" (चर्चा अंक -3651) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
मित्रों!
आजकल ब्लॉगों का संक्रमणकाल चल रहा है। ऐसे में चर्चा मंच विगत दस वर्षों से अपने चर्चा धर्म को निभा रहा है।
आप अन्य सामाजिक साइटों के अतिरिक्त दिल खोलकर दूसरों के ब्लॉगों पर भी अपनी टिप्पणी दीजिए। जिससे कि ब्लॉगों को जीवित रखा जा सके।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
जी. धन्यवाद शास्त्रीजी.
हटाएंयथासंभव प्रयास रहेगा अधिक से अधिक blogs की सैर करने का.
बहुत सुंदर सृजन
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत धन्यवाद.
हटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद,ओंकारजी.
हटाएंधन्यवाद, दिग्विजयजी. संध्या वंदन की साझी बैठक में शामिल करने के लिए.
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