रविवार, 14 जनवरी 2018
शनिवार, 6 जनवरी 2018
सलीका
मिले - जुले रंगों की
बेतरतीब
आड़ी - तिरछी रेखाओं में भी
मनभावन
तस्वीर नज़र आने लगे . .
मेले में खरीदी लाल - हरी
कांच की चूड़ियां,
चटक चुनरी लहरिया,
मेहँदी रची हथेलियां,
मिर्च कुतरता तोता,
हरी घास,
अबीर गुलाल,
गेंदा और गुलाब,
और जो कहिये जनाब !
याद आने लगे !
कोई अच्छी - सी बात सूझे,
मन
जीवन का छंद
गुनगुनाने लगे,
समझिए
आपको सलीका आ गया !
मुबारक हो !
आपको जीना आ गया !
मंगलवार, 21 नवंबर 2017
प्राण प्रतिष्ठा
काठ की गुड़िया
केवल सिर हिलाती है,
बोल नहीं पाती है ।
पर मोल लेने वालों को
ऐसी ही मूक प्रतिमा
बेहद पसंद आती है ।
काठ की गुड़िया
अनेक प्रकार की,
सारी दुनिया में
पाई जाती है ।
कई नामों से
जानी जाती है ।
मिट्टी की गुड़िया ।
मोम की गुड़िया।
प्लास्टर ऑफ़ पेरिस की तो
ग़ज़ब ढाती है ।
नाक - नक़्श महीन
और मुँह में ज़बान नहीं ।
और क्या चाहिए जी ?
हामी भरती हुई
बेजान चीज़ भी
बड़ी आकर्षक और
मनभावन होती है ।
खूबसूरती की
मिसाल होती है।
कुल मिला कर
कमाल होती है !
जिस दिन ये गुड़िया
बोलने लगेगी,
ना जाने क्या-क्या
कह देगी ।
सब की भलाई
इसी में है,
ये गुड़िया घर में
सजावट के लिए ही रहे ।
इसके बोलने में
बड़ा खतरा है।
काठ की गुड़िया . .
मिट्टी की गुड़िया . .
कांच की गुड़िया . .
रबर की गुड़िया . .
जिस दिन ये गुड़िया
बोलने लगेगी,
सुन्दर दिखे ना दिखे . .
अच्छी लगे ना लगे . .
दुनिया बदल देगी ।
गुरुवार, 2 नवंबर 2017
आत्मबल
कब तकमाँ दुर्गा हीमहिषासुर मर्दन करेंगी ?कब तकराजा राम हीरावण से युद्ध करेंगे ?यदि महिषासुरऔर दशाननहमारे भीतर की हीदशाएं हैं,तो हम अपनी लड़ाईखुद कब लड़ेंगे ?सामर्थ्य औरदायित्व बोध जोप्रसाद में पाया हमनेकब उस आत्मबल सेस्वयं अपनेमन के क्लेशहरेंगे हम ?
बुधवार, 25 अक्तूबर 2017
पत्तों को चुपचाप झरते देखा
मंगलवार, 24 अक्तूबर 2017
शनिवार, 7 अक्तूबर 2017
कही कविता
संकट के कठिन समय में
संजीवनी बूटी बनते देखा।
सुख के चंचल चपल दिनों में
अहाते में चौकड़ी भरते देखा।
घर भर के कोने - कोने में
कविता को रचते - बसते देखा ।
माँ को सदा गृहस्थी के
उलटे - सीधे फंदों में
रहीम के दोहे बुनते देखा।
दाल-भात, खीर और फुल्के
रसखान के रस में पगते देखा।
दादा को हर दिन सुबह-सबेरे
चौपाइयों से आचमन करते देखा।
सूरदास की पदावली में
ठाकुर दर्शन होते देखा।
आँखों की नमी को नज़्म होते देखा।
डूबती नब्ज़ थामने को ग़ज़ल होते देखा।
कविता से बाँटी मन की पीड़ा।
जो भी सीखा,कविता से ही सीखा।
जीवन में लोग आए - गए ,
घटनाक्रम चलते रहे।
पर कविता ने कभी भी
साथ नहीं छोड़ा।
कविता को घर आँगन की
पावन तुलसी बनते देखा।
देखा बनते
सीता मैया की लक्ष्मण रेखा।
और अर्जुन के लिए
कृष्ण की गीता।
कविता से ही सीखा
जीने का सलीका।
जब जब ठोकर लगी
कविता ने ही संभाला।
कविता जैसा ना पाया
मनमीत कोई दूजा।
माँ की गोद से जब उतरे
कविता की ऊँगली पकड़ के ही
हमने चलना सीखा।
कविता से पाई जीवन ने गरिमा।
कविता से पाई ह्रदय ने ऊष्मा।
कविता की दृष्टि से ही
समस्त सृष्टि को देखा।
कविता में जी को पिरो कर ही
कविता को जी कर देखा।
सदस्यता लें
संदेश (Atom)