शुक्रवार, 1 जुलाई 2022

अपना हाथ जगन्नाथ


रात को जब सोने लगो
दिन भर के सपनों को 
कंधों से उतार कर
ताक पर मत धर देना ।

सपनों को समेट कर
हौले से धूल झाड़ कर
अच्छी तरह तहा कर
हथेली की रेखाओं के बीच
सहेज कर रख देना ।

सुबह जब उठो
बंधी मुट्ठी जब खोलो
सबसे पहले ध्यान करो ..
तुम्हारी हथेली में ही है
लक्ष्मी सरस्वती और गोविंद का वास ।
अपने प्रयत्न से
पानी है तुम्हें
समृद्धि और विद्या ।
प्रयास करो, स्मरण रहे
तुम्हारे गोविंद हैं आधार ।

स्वप्नों की परतें खोलो
परत दर परत समझो
स्वप्न का शुभ संकेत ।

अंतर्मन तब तक मथो
जब तक सार ना पा जाओ ।

फिर उठो और जतन करो ।
एकनिष्ठ कर्म ही जीवन का सार
और भक्त के गोविंद हैं आधार ।

सत्यनिष्ठ के गोविंद हैं आधार
स्वयं सिद्ध करो काज
स्वप्न करो साकार

गोविन्द हैं आधार
और अपना हाथ जगन्नाथ

सोमवार, 20 जून 2022

दिनचर्या दिवाकर की


दिन भर तप कर सूरज जब
सांझ को ढल जाता है,
तारों भरा आकाश का आंचल
थपकी देकर सुलाता है ।

कभी-कभी चंद्रमा भी आकर
चांदनी रात ओढाता है,
और पवन का झोंका थम कर
मीठी लोरी सुनाता है ।

सप्त ऋषि दल तपोबल बट कर
पृथ्वी के दीप बालता है,
ध्रुव तारा सजग ध्रुव पद पर अटल 
भूले को राह दिखाता है ।

भोर की वेला में जब सूरज रथ पर
पुनः क्षितिज पर आता है,
सृष्टि के स्वर जगा छलका रंग सहस्र 
जग आलोकित करता है ।




शनिवार, 11 जून 2022

वह एक क्षण



सही वक्त पर 

एक फूल भी खिल जाए

तो बचा लेता है 

किसी को मुरझाने से

टूट कर बिखर जाने से ।


जब ज़रूरत हो तब

कोई साथ खङा हो जाए

कंधे पर रख कर हाथ

तो लौट आता है 

खोया हुआ आत्मविश्वास।


समय रहते ही

कोई जो पूछ ले 

पास बैठे अनमने

अपरिचित का हाल,

तो हो सकता है 

टल जाए वह

आत्मघाती घङी,

जब धक्के खा-खा कर 

आदमी का चिंतन

हो जाता है चेतना शून्य ।


एक पल ही होता है वह

जिसकी धुरी पर 

टिका होता है विवेक,

तट से जा लगती है 

भूली-भटकी जीवन नैया..

इस पार या उस पार 


एक ही क्षण होता है वह

दैदीप्यमान आत्मबोध का,

जब अंतर के हाहाकार से

कांपती लौ को स्थिर कर 

साध लेता है धैर्य का संपुट ।



सोमवार, 6 जून 2022

पेङ रहेंगे हमेशा

कल हो सकता है,
मैं रहूँ ना रहूँ,
पर हमेशा रहेंगे
तुम्हारी स्मृति में 
वे पेङ-पौधे हरे-भरे
जो हमने साथ लगाए..

वह नदी, जल जिसका
कभी नहीं ठहरता,
जिसकी धारा में हमने
दोनों में दीप धर करबद्ध
अनंत को संदेश पठाए..

यह नील नभ का विस्तार 
जिसमें अंतरतम के भाव
बादल बन छाए, गहराए
और बरसे निर्द्वन्द्व मूसलाधार..

वह बंजारन पवन सघन वन
झूमती, कभी सीटी बजाती
स्निग्ध बयार माथा सहलाती..

चूल्हे की आंच पर सिंकती
कच्ची-पक्की भावनाएं..
ये सब रहेंगे तुम्हारे साथ ।

मुङ कर देखो यदि अकस्मात 
संभावनाओं को देखना, 
असफलताओं को नहीं ।
अनुपस्थिति से 
विचलित मत होना ।

कल हो सकता है,
मैं रहूँ ना रहूँ,
पर हमेशा रहेंगे
तुम्हारी स्मृति में 
वे पेङ-पौधे हरे-भरे
जो हमने साथ लगाए..
उनकी घनी छाँव तले
बैठना और संकल्प लेना..
धरा को बनाना हरा-भरा ।


🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌳🌳🌳🌳🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌳🌳🌳🌳🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴

चित्र - हस्तकला प्रदर्शिनियों में उड़ीसा के ताल पात्र पर बने चित्रों के स्टाल पर अवश्य गए होंगे 
वहीं से ली था यह जीवंत कलाकृति । प्रकृति से विशेषकर वृक्ष से जुड़े जीवन की सहज सरल अनुकृति । अनाम कलाकार का सादर अभिनंदन  अनंत आभार 



रविवार, 5 जून 2022

चलो रोपते हैं एक पौधा


चलो इस उम्मीद में 
रोपते हैं एक पौधा, 
कि एक दिन वह  
दुआ बन कर फलेगा ।
जो बरसों बाद घना होगा,
मज़बूत तना होगा ।
शाखों पर नीङ बना होगा, 
चिङिया का कुनबा होगा ।
टहनियों का झूला होगा ।
पक्षियों का कलरव होगा ।
पा कर आमंत्रण छाँव का
डेरा डालेगा गुज़रने वाला,
कोई कुटुंब थका-हारा ।
सुन कर बिटिया का तुतलाना 
कान लगा कर बैठा तोता
कंधे पर आ बैठेगा ।
नन्ही हथेली से चुग कर दाना
फुर्र उङेगी छोटी-सी चिङिया !
कौतुक देख हँस देगी माँ !
और पिता कृतज्ञ मना सोचेगा 
किसने रोपा होगा यह हरा-भरा
वृक्ष विशाल छायादार घना-सा ..
पत्ता-पत्ता झूम-झूम पंखा झलेगा
ठंडी बयार का झोंका थपकी देगा
आश्वस्त पाकर हरीतिमा की छत्रछाया  
धरती बिछा निश्चिंत सो जाएगा पिता ।

चलो रोपते हैं एक पौधा । उम्मीद का ।
बरसों बाद जिसकी ठंडी छांव में बैठा
कोई थका-हारा हो कृतज्ञ देगा दुआ ।
शायद वो भी फिर रोपेगा एक पौधा  
जो बन कर सघन वृक्ष छांव घनी देगा ।

गुरुवार, 12 मई 2022

तासीर

मेरी प्यारी बेटियों 
जुग जुग जियो !
जैसे-जैसे बड़ी हो..
बहुत कुछ बनना 

जब-जब छाये अँधेरा,
बिजली की तरह कौंधना 
गहरे ताल में पड़े उतरना 
तो कमल की तरह खिलना 
बहुत कुछ बनना ।
भुलावे में मत रहना ।
चौकस रहना ।

जो जो सीखो,
सहेजती जाना ।
जैसे अपनी किताब-काॅपी
बस्ते में लगाती हो ।
जैसे गर्म रोटियाँ मोङ कर 
कटोरदान में रखती हो ।
जैसे अपने दुपट्टे,कुर्ते, सलवार
साङी तहा कर रखती हो ।
जैसे घर का सारा सामान 
जगह-जगह जमा कर रखती हो ।

अपनी भावनाएं, अपने स्वाद,
अपने संकल्प, अपने व्यक्तित्व को 
सहेजे रखना । बचा कर रखना ।
समय बीतने के साथ नज़र की तरह
अपनी व्यक्तिगत रूपरेखा को
धुंधला मत पङने देना ।

अच्छी बेटी बनना ।
अच्छी बहन बनना ।
अच्छी पत्नी बनना ।
अच्छी माँ बनना ।
इस सबके बीच तुम जो हो,
वह बनी रहना ।

बहुत कुछ बनना ।
बहुत कुछ बदलेगा 
तुम भी बदलते हुए जीना 
बस तासीर मत बदलने देना ।


*************************************

आभार सहित 
चित्र इंटरनेट से 
इंडिया पोस्ट डाक टिकट 


रविवार, 8 मई 2022

स्वयंसिद्धा



महाकवि निराला ने 
देखा था उसे
इलाहाबाद के पथ पर 
वह तोङती थी पत्थर ।

आज मैंने जिसे देखा
क्या यही थी वह जिसे 
देखा था महाकवि ने ?

आप रहे भाव दृष्टा
आपने पढ़ लिया 
उलाहना आंखों का..
अथवा ..
मौन कटाक्ष था क्या? 
था भी तो आपसे ज़्यादा 
कौन समझ सकता था ?
ठंड में ठिठुरते 
फुटपाथ पर सोते 
विपन्न को अपना
ऊनी वस्त्र दे दिया था,
आपने उदार मना ।

उसका जता देना,
पुनः काम में जुट जाना ।
अपने हाथों और हथौङे से 
गढ़ना अपना भवितव्य ।
स्वीकार कर पत्थर सा 
कठोर जीवन अपना 
और जीवट इतना 
हथौङे से लगातार 
करती वार
वह तोङती पत्थर ..
विषमताओं पर करती प्रहार ..
आप जान गए थे महामना ।

तो क्या कुछ भी नहीं बदला ? 
पीठ पर बांध कर बच्चा 
कङी धूप में तप कर
हाथ में हथौङा लेकर 
अब तक वह स्वयंसिद्धा
तोङती है पत्थर ..

महाकवि निराला की संवेदना 
लिख गई कविता 
पिरो कर अनुभूति में 
भाव सरिता ।
आज मैंने भी देखा,
वह तोङती थी पत्थर ।

÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷

छायाचित्र इंटरनेट से साभार