रविवार, 8 मई 2022

स्वयंसिद्धा


महाकवि निराला ने 
देखा था उसे
इलाहाबाद के पथ पर 
वह तोङती थी पत्थर ।

आज मैंने जिसे देखा
क्या यही थी वह जिसे 
देखा था महाकवि ने ?

आप रहे भाव दृष्टा
आपने पढ़ लिया 
उलाहना आंखों का..
अथवा ..
मौन कटाक्ष था क्या? 
था भी तो आपसे ज़्यादा 
कौन समझ सकता था ?
ठंड में ठिठुरते 
फुटपाथ पर सोते 
विपन्न को अपना
ऊनी वस्त्र दे दिया था,
आपने उदार मना ।

उसका जता देना,
पुनः काम में जुट जाना ।
अपने हाथों और हथौङे से 
गढ़ना अपना भवितव्य ।
स्वीकार कर पत्थर सा 
कठोर जीवन अपना 
और जीवट इतना 
हथौङे से लगातार 
करती वार
वह तोङती पत्थर ..
विषमताओं पर करती प्रहार ..
आप जान गए थे महामना ।

तो क्या कुछ भी नहीं बदला ? 
पीठ पर बांध कर बच्चा 
कङी धूप में तप कर
हाथ में हथौङा लेकर 
अब तक वह स्वयंसिद्धा
तोङती है पत्थर ..

महाकवि निराला की संवेदना 
लिख गई कविता 
पिरो कर अनुभूति में 
भाव सरिता ।
आज मैंने भी देखा,
वह तोङती थी पत्थर ।

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छायाचित्र इंटरनेट से साभार 

12 टिप्‍पणियां:

  1. कुछ नहीं बदला। दूसरों के सपने साकार करने वाला मजदूर आज भी वैसा ही है।
    'वह तोड़ती पत्थर' मेरी पसंदीदा कविताओं में से एक है।

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  2. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार 09 मई 2022 को 'तो क्या कुछ भी नहीं बदला ?' (चर्चा अंक 4424) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।

    चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।

    यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।

    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।

    #रवीन्द्र_सिंह_यादव

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  3. तोड़ती पत्थर तो हर जगह दिखती हैं .... बेहतरीन रचना .

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  4. उसका जता देना,
    पुनः काम में जुट जाना ।
    अपने हाथों और हथौङे से
    गढ़ना अपना भवितव्य ।
    स्वीकार कर पत्थर सा कठोर
    जीवन अपना और जीवट इतना
    हथौङे से लगातार करती वार
    वह तोङती पत्थर ..
    विषमताओं पर करती प्रहार ..
    आप जान गए थे महामना

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  5. निराला की अमर रचना की सुंदर काव्यात्मक समीक्षा के लिए बधाई। सचमुच! तारीखें बदलीं,साल बदले, कई दशक बीत गए मगर समाज और अर्थतंत्र के एक लगभग स्थाई हो चुके कटु सत्य को अपने में समेटता वह चित्र ज्यों का त्यों है। 👍👍👍🙏💐

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  6. आज भी गरीबी पत्थर तोड़ती है जीने के लिए संघर्ष करती है।

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