दिन भर तप कर सूरज जब
सांझ को ढल जाता है,
तारों भरा आकाश का आंचल
थपकी देकर सुलाता है ।
कभी-कभी चंद्रमा भी आकर
चांदनी रात ओढाता है,
और पवन का झोंका थम कर
मीठी लोरी सुनाता है ।
सप्त ऋषि दल तपोबल बट कर
पृथ्वी के दीप बालता है,
ध्रुव तारा सजग ध्रुव पद पर अटल
भूले को राह दिखाता है ।
भोर की वेला में जब सूरज रथ पर
पुनः क्षितिज पर आता है,
सृष्टि के स्वर जगा छलका रंग सहस्र
जग आलोकित करता है ।
सूरज की पूरी दिनचर्या ढाल दी कविता में । बहुत खूब।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद संगीता जी । बच्चों का वाॅटर सायकिल माॅडल बनाते-बनाते यह बात मन में आई । सारी सृष्टि सूर्य के आने-जाने के इर्द-गिर्द ही तो गतिशील है ।
हटाएंवाह!बहुत सुंदर सृजन।
जवाब देंहटाएंसादर
आपको अच्छी लगी बात
हटाएंहमारे बङ भाग धन्यवाद
वाह! बहुत खुब
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत धन्यवाद ।
हटाएंबेहतरीन रचना
जवाब देंहटाएंपढ़ने और सराहना के लिए सादर धन्यवाद ।
हटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंशुक्रिया ! आपकी तो रिश्तेदारी में हैं सूर्य देवता !!
हटाएंशास्त्री जी, चर्चा संकलन में स्थान देने के लिए हार्दिक आभार । एक बुक जर्नल के बारे में पता चला । एक अलग किस्म का किताबी कोना । मन और धरती की फ़ितरत एक जैसी होने की बात बहुत अच्छी लगी । अन्य रचनाएँ भी सोने पर सुहागा । अभिनंदन ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
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