सोमवार, 10 मई 2021

करम की गति न्यारी


" चाय देना एक भाई ! " कमज़ोर सी आवाज़ में अतीत बोला । चाय वाले ने अतीत की ओर देखा । डेढ़ पसली का आदमी दो-तीन दिनों में ही झटक गया था । उसका सारा परिवार कोरोना ग्रस्त अस्पताल में पङा था । ये जाने कैसे बच गया था । ख़ैर ..यहाँ तो एक से एक केस थे । बचे लोग देखभाल करने वाले, तो वे सारे अस्पताल के सामने वाले बरगद के नीचे पनाह ले चुके थे और दिन गिन रहे थे । 

चाय वाले ने अतीत के सामने चाय की गिलसिया रख दी और बोला," महाराज ! आज क्या बात है ? कोई किस्सा, कहानी, चुटकुला ..कुछ नहीं । बलब फ्यूज है क्या? सब ठीक तो है ना ? "

अतीत जैसे नींद से जागा । खीसें निपोरते हुए बोला, " क्या बताऊँ यार ! कुछ समझ में ही नहीं आता, कब सलटेगा यह मौत का कुंआ जैसा खेल !"

" क्या बोले भाईसाहब? मौत का कुंआ का खेल ?"
यह आवाज़ पास बैठे जीव से निकली थी ।

अतीत," हाँ । भैया पहले नहीं देखा । तुम्हारा भी कोई भीतर फंसा है  क्या? क्या नाम है भाई  ?"

जीव ने घोषणा की," मैं? कोरोना ।"

यह सुन कर चाय वाले के हाथ से गिलसिया छूट गई ! अतीत सन्न ! झटके से उठ खङा हुआ !  बोला,"ये कैसा नाम है ? "

जीव ठठा कर हँसा । " क्यों ? तुम तो खुद ही अतीत हो ! फिर भी अभी बीते नहीं !"

अचानक अतीत को करेंट-सा लगा और वो हाथ जोड़ कर जीव के कदमों में बैठ गया," अरे प्रभु ! आप ही हैं, जिनका डंका सारी दुनिया में बज रहा है ? भई कमाल कर दिए आप तो ! ऐसा हंटर घुमाए हो कि घर का घर बरबाद कर दिया ! कौन जनम का बदला लिए हो गुरु ? जरा दया-माया नहीं?" बोलते-बोलते अतीत की आवाज़ भर्रा उठी ।

जीव बोला," काहे इतना रो-धो रहे हो ? इतना ही दिल में इमोसन रहा तो ससुर हमें पैदा काहे किए ?"

अतीत," हम ? हम पैदा किए ?? तुमको ? हम पागल हैं क्या ? "

जीव,"छोङो यार ! तुम आदम जात की पुरानी आदत है ! कांड कर के मुकर जाना !"

अतीत हतप्रभ देख रहा था जीव की ओर , " कांड ? कौनसा कांड ? क्या बक रहे हो ?"

जीव," क्यों? मैं तो तुम्हारी ही नाजायज़ औलाद हूँ ना ? "

अतीत,"ऐ भाई ! कुछ भी बोलेगा ? तेरा कोई धरम-ईमान नहीं क्या ?"

जीव,"मैं क्या धरम-ईमान की पैदाइश हूँ?? तो फिर ये उम्मीद क्यों ?"

अतीत ऑंखें फाङ कर देखता रहा ।

जीव," क्यों? तुम ही लोग बता रहे हो कि ये तो मानव निर्मित जैविक हथियार है । अंधाधुंध प्रकृति का दोहन । आदमी भी तो इसी प्रकृति का एक हिस्सा है । समय रहते तुमने क्या किया ? शतुरमुर्ग की तरह आधुनिक सुविधाओं में मुँह छिपा लिया ? धृतराष्ट्र बने बैठे रहे । फिर दुर्योधन - दुशासन पर बस न चला ! अब महाभारत होने से कौन रोक सकता है ? इस तबाही के लिए क्या तुम ही ज़िम्मेदार नहीं हो? किसे दोष देते हो ?"

अतीत, चाय वाला और बाकी लोग भौंचक्के से खङे थे । मूर्तिवत ।

जीव बोला,"मरना तुम्हारे हाथ में नहीं । पर तुम जिओगे कैसे ? ये तो तुम तय करो ।"


मंगलवार, 4 मई 2021

ईशान कोण जीवन का


मेरे कमरे की
खिङकी का यह कोना
जिसमें फूला है मोगरा, 
धूप में जितना तपता
उतना ही बढ़िया खिलता
और सुगंध बिखेरता !

मेरे कमरे की
खिङकी का यह कोना
जिसमें फूला है मोगरा, 
खुशियों का है टोटका !
खाद,पानी,धूप का होना, 
और प्यार से यदि सींचा
मेहनत का फूल खिलेगा!

मेरे कमरे की
खिङकी का यह कोना
जिसमें फूला है मोगरा, 
समीकरण सुख-दुख का,
विसंगतियों  का टोना,
क्षणभंगुर उल्लास का 
फूल सा डिठौना !

मेरे कमरे की
खिङकी का यह कोना
जिसमें फूला है मोगरा, 
आलाप है आस्था का,
साक्षी है अंतर कथा का,
अव्यक्त भावों का ।

मेरे कमरे की
खिङकी का यह कोना
जिसमें फूला है मोगरा, 
हृदय के स्पंदन सा
आनंद की हिलोरें लेता,
ईशान कोण मेरे जीवन का ।


मंगलवार, 13 अप्रैल 2021

आनंद संवत्


अलविदा २०७७ 
आ ही गया तुम्हारे
अस्त होने का समय ।
बहुत कष्ट पाया तुमने ।
अलग-थलग सबसे विलग
मौन हो गए और हो गए विलय
नवागन्तुक प्रहर की लहर में विलीन ।
अब मिलना होगा नव संवत्सर की चौखट पर ।
सुना है,अब जो आओगे पोटली में होंगे सुदामा के चावल।
मित्रवत स्वागत तुम्हारा हृदय तल से करेंगे सकल जन सहर्ष ।
करतल ध्वनि कर समवेत स्वर में करेंगें शिव तत्व का आह्वान ।
धैर्य और धर्म धारण कर परिवर्तन  लाए नव विकम संवत्सर २०७८ ।
आरोग्य उपहार मिले,उर में आनंद का हो आगमन,नूतन वर्षाभिनंदन ।


रविवार, 11 अप्रैल 2021

किसकी बदौलत है ये सब ?

ये शहरों की रौनक ।
दिन-रात की चहल-पहल ।
ये लहलहाते खेत ।
नदी किनारे मंगल गान ।

मैदानों में दौङ लगाते,
खेलते-कूदते,पढ़ते-लिखते 
अपना मुकद्दर गढते बच्चे ।
हँसती-खिलखिलाती,
सायकिल की घंटी बजाती
स्कूल जाती बच्चियाँ ।

मिट्टीु के कुल्हड़ में धुआँती
चाय की आरामदेह चुस्कियां ।
थाली में परोसी चैन देती
भाप छोङती पेट भर खिचङी ।

चमचमाते बाज़ार की गहमा-गहमी ।
आनन फानन काम पर जाते लोग ।
भावतोल करते दुकानदार, व्यापारी ।
ट्रैफिक की तेज़ बेफ़िक्र रफ़्तार !

आलोचना करने का अधिकार 
अपनी बात कहने का हक़ ..
हद पार करने का भी !

घर लौट कर अपना परिवार 
सकुशल देखने का सुकून,
किसकी बदौलत है ये सब ?

ये सब उन मौन वीरों की बदौलत 
जो चुपचाप हमारी पहरेदारी
करते रहे बिना किसी शिकायत के
ड्यूटी पर तैनात रहे गर्वीले ।
शहीद हो गए ..घर नहीं लौटे ..
ये सारे सुख, निरापद जीवन
उनकी शहादत की बदौलत ।

खबरदार ! भूलना नहीं !
हरगिज़ यह बलिदान !!
सदैव करना शहीदों का सम्मान!
पग-पग पर करना स्मरण
वीरों का वंदनीय बलिदान !
बनी रहे तिरंगे की आन,बान और शान
सोच-समझ कर सदा करना ऐसे काम ।
जतन से संभालना जवानों के 
स्वाभिमानी साहसी परिवारों को जो 
खो बैठे अपने एकमात्र अवलंबन को ।

जिन्होंने प्राण तक कर दिए न्यौछावर
उनके हम जन्म-जन्मान्तर को हुए कृतज्ञ ।
अब ज़िम्मेदारी निभाने को हो जाएं सजग ।

याद रहे हमारे सारे सुख-साधन,जीवन,
स्वतंत्रता इनके बल बूते पर जिन्होंने 
सौंप दिया हमको अपना भारत ।

श्वास-श्वास करती शहीदों का अभिनंदन ।
इनके पराक्रम की बदौलत हमारा जीवन ।




चित्र इंटरनेट समाचार से साभार 

मंगलवार, 6 अप्रैल 2021

वजह जीने की


कभी-कभी 
कोई वजह नहीं होती
पास हमारे, 
आज का पुल 
पार कर के, 
कल का अभिनंदन 
करने की ।
ज़िन्दगी बन जाती
मशक्कत 
बेवजह की ।

ऐन वक्त पर लेकिन 
आपत्ति जता देती,
एक नटखट कली
जो खिलने को थी ।
यह बोली कली
जाने की वेला नहीं,
निविङ निशि ।
टोक लग जाती ।

फूल रही जूही
सुगंध भीनी-भीनी,
बिछी हुई चाँदनी,
धीर समीर बह रही ।
मौन रजनी,
ध्यानावस्थित
सकल धरिणी ।
कोई तो वजह होगी,
सुबह तक रूकने की ।

हाँ, है तो सही
एक इच्छा छोटी सी ..
देखने की कैसे बनी
फूल छोटी सी कली ।

भोर हो गई ।
मंद-मंद पवन चली ।
जाग उठी समस्त सृष्टि 
गली-गली चहक उठी ।
नरम-नरम धूप खिली ।
और खिली कली ।

एक फूल का
खिलना भी,
हो सकती है वजह
जीने की ।


गुरुवार, 18 मार्च 2021

चाहे जो हो चहचहाना

सुन री गौरैया
तेरी लूँ मैं बलैया !

जब से तूने मेरे घर में
अपना घर बसाया
दिन फिर गए हैं ।

दिन उगता है,
दिन ढ़लता है,
चहकते हुए ।

एक अनकहा
अपरिभाषित रिश्ता
जुड़ गया है तुझसे ।
फ़िक्र रहती है तेरी
और तेरी गृहस्थी की ।
किसी अपने की ही
चिंता होती है ना ।

उस दिन सवेरे
उठते ही देखा ।
तेरा एक बच्चा
घोंसले से नीचे
गिर गया था ।
मरा पड़ा था ।
जाने ये कब हुआ !
कैसे हुआ !
पता ही नहीं चला ।
कलेजा टूक हो गया ।

हम सब रोज़ाना
देखते रहते हैं,
तेरी गृहस्थी
बड़ी होते हुए ।

कैसे बच्चे चोंच खोले
घोंसले से बाहर झांकते
बाट जोहते थे तेरी ।
और तू अपनी चोंच से
उनकी नन्ही चोंच में
डालती थी दाने ।

कैसे वो बच्चे
सीखते थे उड़ना
जब पंख निकल आते थे ।
फुदकते - फुदकते
पंख खोलते और टकराते
गिरते उड़ते गिरते उड़ते
एक दिन सीख गए उड़ना ।

कैसे मैना और कबूतर आते
हर वक्त तुम्हें डराते
घोंसला हथियाने के लिए ।
और तुम आसमान
सर पर उठा कर 
सचेत कर देते थे हमें ।
हम दौड़ते आते बचाने
कबूतर और मैना उड़ाने !

कहां से तुम आईं हमें
जीवन का पाठ पढ़ाने ।
कभी अपनी मदद करना
कभी किसी की मदद लेना ।
पर पंख फड़फड़ाते - फड़फड़ाते
फिर पंख फैला कर धीरे-धीरे
निर्द्वंद उड़ना सीखना ।
नीङ बनाना, बसाना, फिर उड़ जाना ।
दाना चुगना, पानी पीना और उड़ना ।
तिनका - तिनका जोड़ना सुख
और चाहे जो हो चहचहाना ।