सत्य और असत्य
उचित अनुचित में
अंतर है क्या ..
इस बहस में उलझे रहे,
सिद्धांत उधेङते रहे,
तर्क की कंटीली
बाङ बांधते रहे ,
किससे किसको
बचाने के लिए ?
वाद-विवाद के
चक्कर लगाते रहे ।
जहाँ थे, वहीँ रह गए ।
इतने संशय में
कैसे जी पाओगे ?
अपने को पाओगे ?
इससे बेहतर तो हम
नदी के तट पर
चुपचाप बैठ कर,
जो साबित नहीं
किया जा सकता,
उसे अनुभव करते
तो संभवतः अधिक
समझ में आता ।
नदी के जल में भी
फेंको पत्थर तो
होती है हलचल ।
शांत जल में
झाँक कर देखें.. तो
स्वयं को देख पाते हैं हम,
जब शांत जल बन जाता है दर्पण ।
कुछ समझे मेरे व्याकुल मन ?