सुबह सुबह सांकल खटका के,
चंचल हवा आ बैठी सिरहाने ।
हाथों में थामे थी चरखी और पतंग,
बातों से छलके थी बावली उमंग !
बोली जल्दी चलो खुले मैदान में !
सूरज भी आ डटा है आसमान में !
झट से रख लो संग पानी की बोतल !
मूंगफली,तिल के लड्डू,रेवङी,गजक !
देखो टोलियाँ तैनात हैं आमने-सामने !
पतंगें भी कमर कस के तनी हैं शान से !
बहनें मुस्तैद हैं चरखियां लिए हाथ में !
हरगिज़ आंच ना आए भाईयों की आन पे !
लो वो उठीं ऊपर और छा गईं आकाश में !
पतंगें ही पतंगें टंकी हैं धूप की दुकान में !
बच्चे तो बच्चे बङे भी बच्चे हो गए !
हंसी - ठिठोली घुल गई आबो-हवा में !
जिसने पतंग काटी सिकंदर से कम नहीं !
जिसकी कट गई उसके दुख की सीमा नहीं !
खेल क्या है ये तो भावनाओं की उङान है !
डोर है, पतंग है और खुला आसमान है !
पतंगों की कोरों पर झूलती उमंग है !
ठान लो यदि संभावनाएं अनंत हैं !
वो काटे चिल्ला कर नाचे मस्तमौला है !
लूटने पतंग जो दौङा वो मलंग है !
सच्चा है सारा खेल झूठी ये जंग है !
झूठी है हार-जीत सच्चा मेलजोल है !