बुधवार, 30 अक्तूबर 2019

आए हैं सिया राम




आओ
एक नए दिन का
सहर्ष स्वागत करें ।

आए हैं सिया राम
लंका जीत कर ।
अभिनन्दन करें ।

हम भी अपने-अपने
युद्ध जीतने का
संकल्प करें ।

यथासंभव
प्रसन्न रहने का
प्रयत्न करें ।

दिये की लौ से
तिमिर का
तिलक करें ।

नन्हे दियों सी
छोटी खुशियों का
आनंद संजोएं ।

मर्मभूमि पर हृदय की
सियाराम लिख
वंदन करें ।

आओ जीवन की
विसंगतियों को
त्यौहार में बदल दें ।

आओ आशा के
टिमटिमाते दियों की
झिलमिलाती रोशनी में
अल्पना बन संवर जाएं ।


सोमवार, 14 अक्तूबर 2019

डायरी के ख़ाली पन्ने


बड़ा शौक है मुझे 
डायरियां इकट्ठी करने का..    
उन लोगों का है कहना 
जो जानते हैं मुझे।  

देखा है उन्होंने 
मुझे डायरियां खरीदते हुए,
डायरियों के इश्क में
मजनू होते हुए ..
खूबसूरत डायरी देखी नहीं
कि लट्टू हो गए !
आव देखा ना ताव
घर ले आए
सीने से लगा के !
बस यूँ समझ लीजिए
एक निकाह ही नहीं पढ़ा !
हम भी वर्ना ...
आदमी थे काम के !

कभी तशरीफ़ लाइए !
नाचीज़ के गरीबखाने पे !
शेल्फ़ में करीने से सजी
दिखेंगी डायरियां !
बहुत कुछ जिनमें
बाकी है लिखना। 
ख़ाली पन्ने नहीं ये 
दामन हैं उम्मीद का। 
किसी दिन देखना, 
मुझे आ जाएगा लिखना
अपने मन का। 

बस ये मत पूछियेगा
इन डायरियों का होगा क्या ?
कुछ ना कुछ तो होगा ज़रूर !
ये नाज़नीं ठहरीं मेरा गुरूर !

और क्या कहिये इनका सुरूर !
मरमरी काग़ज़ की खुशबू
कर देती है दीवाना !
अपने-आप से बेगाना !

जब डायरी का कोरा पन्ना
खुलता है आँखों के सामने,
जी में उमड़ने लगता है
जज़्बात का सैलाब !
और बाहों में समाने लगता है
संभावनाओं का असीम आकाश। 

आज नहीं तो कल बोल उठेंगे शब्द, 
और भर देंगे डायरी के सारे ख़ाली पन्ने। 
 

बुधवार, 9 अक्तूबर 2019

अंततः जीतता है सत्य ही


असत्य तो हारता ही है अंततः 
बेशक़ हम समझ ही ना पाएं, 
भेद न कर पाएं हार-जीत में।  

चूक जाए विश्लेषण हमारा। 
भ्रमित कर दे अन्वेषण हमारा।

याद करो जब घटती है दुर्घटना 
अथवा होता है कुछ बहुत बुरा 
आदमी अनभिज्ञ बन कर है पूछता 
मेरे ही साथ आखिर ऐसा क्यों हुआ ?
मैंने क्या किया था जो यह दंड मिला ?

उसे याद नहीं आता अपना किया। 
अपने ही कर्मों का मिलता है सिला। 
सोचो तो अवश्य मिल जाएगा सिरा।

हर दृष्टांत रामलीला जैसा 
स्पष्ट कथानक नहीं होता। 
साफ़-साफ़ दिखाई नहीं देता 
हमेशा न्याय विधाता का 
दो और दो चार के सामान। 
पर कचोटता है अनुचित जो किया। 
आजीवन प्रेत बन करता है पीछा। 

इसलिए विश्वास डिगने मत देना। 
संशय को सेंध मत मारने देना। 
जो करना चाहिए तुम वही करना। 

दूसरों के किये का हिसाब तुम्हें नहीं देना। 
तुमसे पूछा जायेगा कि तुमने क्या किया ? 

सोमवार, 7 अक्तूबर 2019

नट का नाच



हँसी आ गई
देख कर
बिजली के तार पर
नट की तरह
सूरज दादा को
संतुलन बनाते हुए !

इंसान की
क्या बिसात !
बड़े-बड़ों को
झंझटों में फंस कर
झूलते तारों में
उलझ कर
डगमगाते देखा ।

घटनाक्रम और
कालचक्र के पेंच ने
दुर्दांत टेढ़ों को
सीधा कर दिया ।
समय की
डुगडुगी बजा कर
चुटकी बजाते
सिखा दिया
नट का नाच ।

जब विकल्प ना हो
और गिरना ना हो
तो आ ही जाता है
इकहरी रस्सी पर
नट की तरह
दम साध कर
संभल कर चलना ।

गुरुवार, 3 अक्तूबर 2019

घुलने दो रंग



दिल और दिमाग़ की
खिड़कियां खुली रखना ।
ताज़ा हवा आने देना ।

ज़रूरी नहीं हमेशा
हम जो सोचते हों,
वही सही हो ।

सामने वाले की
नज़र से सोचना भी,
कभी कभी
होता है अच्छा ।

रंग कोई भी
हो जाता है दूना,
जब उसमें घुलने दो
कोई रंग दूसरा ।



चित्र साभार - सुवीर शांडिल्य 

शुक्रवार, 27 सितंबर 2019

कैलेंडर


सुबह से ही गहरे बादल घिरे हुए थे. सायली झटपट काम निबटा कर जल्दी घर जाना चाहती थी. इधर कुछ दिनों से झुटपुटा होने से पहले घर पहुँचने की कोशिश रहती थी उसकी. उसकी खोली तक पहुँचने के रास्ते में एक चाय की टपरी पर.. मरे कुछ आदमी आकर बैठने लगे थे एक दो महीने से ! बेहुदे कहीं के ! फालतू गाने गाना ! खी-खी हँसना घूरते हुए !

चाय वाला काका आँखों के इशारे से ही टपरी तक आने को मना कर देता था. संझा को लौटते हुए ख़ुद ही बिस्कुट जैसा छोटा-मोटा सामान दे जाता था. कहता था, "दूर ही रहना बिटिया. ये बेशरम मुझे कुछ ठीक नहीं लगते. औरतों के बारे में बेकार बातें करते हैं." 
उस दिन सामान दे कर पैसे लिए और जाते-जाते ठिठक गया. हिचकिचाते हुए माई को देख कर बोला,"मोबाइल में शायद भद्दी चीज़ें देखते हैं. अच्छा नहीं लगता. पर मुस्टंडों से क्या कहूँ ? अभी कुछ ऐसा किया भी नहीं है बीबी. किस बात पर टोकूं ? मेरे साथ वाला कहता है ..आजकल सब देखते हैं. कोई गुनाह थोड़े है...पता नहीं. पर मेरा जी घबराता है. अभी तक कुछ ना हुआ..पर भगवान ना करे ..कुछ हो जाए तो ? संभल के रहना." काका ने जो खुटका बैठा दिया मन में, तो घर से निकलने से लेकर वापिस लौटने तक मन में बेचैनी बनी रहती.
ये सब सोचते-सोचते सायली के हाथ फुर्ती से चल रहे थे. तभी अचानक तूफ़ान-सा आ गया. खिड़की-दरवाज़े खड़कने लगे जोर-जोर से.. इतनी तेज़ हवा चलने लगी. 
दीदी ने कमरे से ही आवाज़ दी,"सायली, बाहर से कपड़े उठा लेना. बारिश आएगी लगता है. सब भीग जाएंगे."
सायली ने जवाब दिया,"हाँ,दीदी. उठती हूँ." भाग कर कपड़े उठा कर लाई और तखत पर धर दिए.
एकाएक उसकी नज़र दीवार पर पड़ी तो देखा, एक बहुत बड़ा कैलेंडर टंगा था जो पहले तो नहीं था. कैलेंडर में बहुत बड़ा चित्र था दुर्गा पूजा का. बहुत सुंदर. एकटक देखती रह गई सायली. तभी दीदी गुड़िया को संभालती हुई बाहर आ गई.
सायली को कैलेंडर निहारते देखा तो मुस्कुरा के बोली,"क्यों ? तुझे बहुत पसंद आया क्या कैलेंडर सायली ?"
सायली चौंक गई. बोली,"हाँ, दीदी कितना सुन्दर है ना ? और इतना बड़ा ! सच्ची के जैसा ! इसलिए मैं देखते ही रह गई !"
दीदी हँस कर बोली," हाँ, है तो बहुत सुन्दर. हर महीने का एक चित्र है. अच्छे-मोटे कागज़ का है तो भारी भी बहुत है. हम तो लगाने से रहे. तुझे चाहिए तो ले जा."
सायली,"अरे नहीं नहीं दीदी ! मैं तो बस देख रही थी. हमारी खोली भी तो छोटी-सी है."
दीदी बोली,"ले जा घर एक बार.नहीं जमे तो वापिस ले आना. किसी और को दे देंगे. ले जा."
इतना कहने पर सायली ने कैलेंडर उतार कर रख लिया अपने पास. फिर बाकी बचा काम ख़त्म कर निकल पड़ी.
इतनी ही देर में बादल ज़ोर से बरस कर चलता बना था. अँधेरा-सा तो हो गया था पर अच्छा हुआ कि बारिश बंद हो गई थी. उसने जल्दी-जल्दी क़दम बढ़ाये. चाय की टपरी की बगल से दबे पाँव निकल जाना चाहती थी कि देखा टपरी तो बंद पड़ी है. ऐसा कैसे ? पर खैर ...सायली ने चैन की सांस ली. टपरी की रौशनी नहीं थी तो मोहल्ले का वो कोना अँधेरा-सा हो गया था. सायली ने सोचा..जल्दी से निकल जाऊँ ...तभी दबी आवाज़ में हँसने की आवाज़ ने उसको चौकन्ना कर दिया. वो एक आड़ में हो गई और बिना हिले-डुले सुनने की कोशिश करने लगी. आदमियों की आवाज़ थी. फुसफुसा कर कुछ कह रहे थे. और हंसी तो रुक ही नहीं रही थी.
"अरे यार ! रोज़-रोज़ मोबाइल देख कर पक गया था ! लाइव माल का मज्जा ही मस्त है !"
"लाइव माल ? कैसे ? घर वालों को मालूम नई पड़ेगा ? और पैसा ? उसका क्या ?"
"वोई तो यार ! इधर टपरी पर गाना गाने ..घूरने से कोई बोल नहीं सकता. पर..."
"अरे छोड़ ना यार ! इधर भी कोई कुछ नई बोल सकता."
"ऐसा क्या ? बता-बता !"
"अरे वो लास्ट में खोली के पीछे बाजू ख़ाली जगह है ना ..भंगार पड़े रहता है जिधर. उधर दीवार नई क्या ? बस वो दीवार पे चढ़ा था बच्चा लोग का गेंद लाने को. अरे रात में नई खेलते क्या उधर ?"
"हाँ तो ?"
"अरे उधर ही देखा ! क्या नज्जारा ! उधर सबका घर का खिड़की ! टूटा-फूटा तो रहता ही है ! रात को लाइट जलाये तो फुल वीडियो !"
सबका ठहाका ...
और सायली सुन्न पड़ गई थी. पसीने से तर-बतर. फिर से ठहाका लगा तो होश आया.
"ए चल रे ! अभी चल ! ट्रेलर ! क्या ?"
ठहाका ...
सायली पूरा दम लगा कर भागी और घर जा कर ही रुकी. हाँफते-हाँफते खोली में घुसी और धम से बैठ गई. सर घूम रहा था.
अचानक वो उठी और पूरी खोली को टटोल-टटोल कर देखने लगी, कहीं फांक तो नहीं ! खिड़की तो ठीक है. रोशनदान ? हाय राम ! कितने दिनों से सोच रही थी...तभी दीदी के दिए कैलेंडर पर ध्यान गया. अगर ये उधर टांग दें तो ? उसके ऊपर एक खूँटी भी है. फटाफट कुर्सी सरका कर ,उस पर चढ़ कर सायली ने कैलेंडर टांगा और उतर कर पंखा फुल स्पीड कर दिया. देखने लगी कहीं कैलेंडर फड़फड़ा कर गिर ना जाए..पर इतना बड़ा और भारी कैलेंडर दीवार की तरह दीवार से चिपक गया था.
सायली दीवार की तरह ढह गई और ज़मीन पर बैठी-बैठी दुर्गा पूजा का चित्र एकटक देखने लगी और उसका सारा डर और गुस्सा पिघल कर आँखों से बहने लगा.
"वाह री सायली ! इत्ता सुन्दर कैलेंडर कहाँ से लाई ? और लगा भी दिया. अच्छा है रे ! पेंटिंग जैसा !"
माई कब आ कर पीछे खड़ी हो गई थी,पता ही नहीं चला सायली को.
"है ना माई ? सबके घर में एक ऐसा ही कैलेंडर होना चाहिए. और उसे पता होना चाहिए कि कहाँ लगाना चाहिए."
"बिलकुल ठीक बोली सायली. फटा कपड़ा के लिए रफ़ू और टूटी-फूटी दीवार को ढांपने वास्ते कैलेंडर !

मंगलवार, 24 सितंबर 2019

ढीठ


रोज़ जिस बस स्टॉप से
बस मिलती है मुझे
ठीक उसके सामने
लाल ईंट की बनी
एक टूटी दीवार है ।

इस रास्ते पर वैसे
कई पेड़ हैं हरे-भरे
पर इस दीवार को जैसे
छोड़ कर आगे बढ़ गए हैं ।
ये बस एक दीवार है,
जिस पर इश्तहार भी
नहीं चिपकाए जाते ।

सूनी दोपहर में अकेले
खाली बस स्टॉप पर बैठे
कई दफ़ा इस दीवार से
कह डाले अपने गिले-शिकवे ।
क्योंकि अब आदमी लोग
दुखड़े नहीं सुनते ।
वक़्त बर्बाद नहीं करते ..
कामकाजी ठहरे,
झटपट आगे बढ़ जाते हैं ।
अगला स्टॉप आने से पहले ।

और ये तो ईंट की दीवार है ।
उजाड़ और बेरोज़गार है ।
मवाली कौवे तक पास नहीं फटकते !
ढीठ बन कर फिर भी खड़ी है ।
भग्न हृदय जैसे हार नहीं मानते ।

बहरहाल इसी तरह बरसों गुज़र गए
हम अभ्यस्त हो गए थे एक-दूसरे के
शायद एक दूसरे की दरारों के ।

फिर एक दिन बस का इंतज़ार करते
दीवार पर नज़र गई तो देखा अरे !
बीचों-बीच दीवार में पड़ी दरार से
फूटी थी हरी कोपल अपने ही रंग में !
मानो पत्थर का कलेजा चीर के !

दीवार भी थी बड़े ही असमंजस में !
टूट गई थी मरम्मत की आस करते-करते ।
अचानक कुछ बदल गया था आबोहवा में ।
उम्मीद जाग गए थी कोपल के उगने से ।
हो सकता है नव पल्लव घना वृक्ष बन जाये ।
छाँव मिले तो कोई टेक लगा कर बैठ जाये ।

अब दीवार से बातें करो तो चहकती है ।
मेरे मन में भी ज़िंदादिली करवट बदलती है ।