मेरे ज़हन में
एक किताब है,
जिसे बड़े जतन से
संभाल कर रखा मैंने ।
ये किताब . . किताब नहीं
इबादत है ।
इसमें दर्ज हैं
वो सारी बातें,
जो सच्चे मन से
चाही थीं कभी . .
कुछ करते बनीं,
कुछ रह गईं रखी
मेज़ की आख़िरी
दराज में ।
हो सकता है,
कभी कोई
मेरे ज़हन को तलाशे,
और उसे मिल जाए
यही किताब जो मेरी है,
पर मैंने उसके नाम की है ।
जो कह कर भी
कही ना जा सकीं,
उन बातों की छाप ही
कहलाती है कल्पना ।
कागज़ ,कैनवस या
मन का कोना,
कहीं भी
लिख डालो ,
या रंग दो . .
जो उस वक़्त सही लगता हो,
जब ह्रदय में उठा हो ज्वार
या उमड़ी हो वेदना ।
कह ना पाओ
तो कोलाज बनाओ
अनुभूतियों का ।
या सजाओ
रंगोली या अल्पना
उस रास्ते पर,
जहां से
थके-हारे मायूस लोग
गुज़रते हों ।
यह मौन अभिवादन,
शायद उन्हें
ऐसे किसी की
याद दिला दे,
जिसने हमेशा
उनकी भावनाओं का
किया था आदर ।
या काढ़ो चादर पर
रुपहले बेल,बूटे और फूल
जो उन दिनों की
स्मृति के पट खोल दे,
जब बिना बुलाये . .
माँ की गोदी में
सिर रखते ही
झट से आ जाती थी . .
सुन्दर सपनों वाली नींद ।
सोच कर नहीं,
महसूस कर
जब लिखी जाती है नज़्म,
रंगे जाते हैं
कागज़ , दुपट्टे और मन,
तब कहीं
बनती है मोने की पेंटिंग . .
तब जाकर लिखी जाती है
द लास्ट लीफ़ . .
और रचना कहलाती है
मास्टरपीस ।
चलते रहो ।
मुसलसल सफ़र में रहो ।
मंज़िल तक पहुंचो,
ना पहुंचो ।
चलते रहो ।
मील के पत्थरों से राह पूछो ।
बरगद की छांव में कुछ देर सुस्ता लो ।
नदी के बहते पानी में तैरो ।
धूप में तपो ।
रास्ते की धूल फांको ।
बारिश में भीगो ।
आते-जाते मुसाफ़िरों का हाल पूछो ।
जिसे ज़रूरत हो,
उसकी मदद करो ।
जहां रुको,
मेहनत करो ।
चार पैसे कमाओ ।
मेहनत के पैसों को
खर्च करने का स्वाद चखो ।
राहगीरों से मिलो-जुलो ।
दुख-सुख का पाठ पढ़ो ।
फिर आगे बढ़ो ।
एक जगह मत रुको ।
हर कोस पर जहां पानी बदलता हो ।
हर कोस पर जहां बोली बदलती हो ।
उस रास्ते को एक-सा मत जानो ।
उठो ।
हर मोड़ पर बदलते जीवन को परखो ।
हर नए अनुभव को चखो ।
हर उतार-चढ़ाव का मज़ा लो ।
चलते रहो ।
कहीं पहुंचो ना पहुंचो ।
यात्रा का आनंद लो ।
कुछ नहीं तो,
बहुत कुछ जान जाओगे ।
खुद अपने-आप को,
और आसपास को
बेहतर समझ पाओगे ।
चलते रहो ।
सूर्य चंद्र तारों और समय को
साथ चलते देखो ।
कोई नहीं रुकता ।
तुम भी मत रुको ।
अपना प्रारब्ध ख़ुद रचो ।
उसे भी साथ लेकर चलो ।
चलते रहो ।
चलते रहो ।