बुधवार, 25 अक्तूबर 2017
पत्तों को चुपचाप झरते देखा
मंगलवार, 24 अक्तूबर 2017
शनिवार, 7 अक्तूबर 2017
कही कविता
संकट के कठिन समय में
संजीवनी बूटी बनते देखा।
सुख के चंचल चपल दिनों में
अहाते में चौकड़ी भरते देखा।
घर भर के कोने - कोने में
कविता को रचते - बसते देखा ।
माँ को सदा गृहस्थी के
उलटे - सीधे फंदों में
रहीम के दोहे बुनते देखा।
दाल-भात, खीर और फुल्के
रसखान के रस में पगते देखा।
दादा को हर दिन सुबह-सबेरे
चौपाइयों से आचमन करते देखा।
सूरदास की पदावली में
ठाकुर दर्शन होते देखा।
आँखों की नमी को नज़्म होते देखा।
डूबती नब्ज़ थामने को ग़ज़ल होते देखा।
कविता से बाँटी मन की पीड़ा।
जो भी सीखा,कविता से ही सीखा।
जीवन में लोग आए - गए ,
घटनाक्रम चलते रहे।
पर कविता ने कभी भी
साथ नहीं छोड़ा।
कविता को घर आँगन की
पावन तुलसी बनते देखा।
देखा बनते
सीता मैया की लक्ष्मण रेखा।
और अर्जुन के लिए
कृष्ण की गीता।
कविता से ही सीखा
जीने का सलीका।
जब जब ठोकर लगी
कविता ने ही संभाला।
कविता जैसा ना पाया
मनमीत कोई दूजा।
माँ की गोद से जब उतरे
कविता की ऊँगली पकड़ के ही
हमने चलना सीखा।
कविता से पाई जीवन ने गरिमा।
कविता से पाई ह्रदय ने ऊष्मा।
कविता की दृष्टि से ही
समस्त सृष्टि को देखा।
कविता में जी को पिरो कर ही
कविता को जी कर देखा।
शुक्रवार, 6 अक्तूबर 2017
बुधवार, 4 अक्तूबर 2017
जीवन तो अपने विवेक से जीना है
भई, तुमसे किसने कहा था !
किसने कहा था कि किस्मत से उलझो ?बल्कि समझाया था ..
वक्त की नज़ाकत समझो !
जो होता है होने दो !
होनी को कौन टाल पाया है ?
सब प्रभु की माया है !
कुछ भी ऊल-जलूल मत बको !
देखो अपनी हद में रहो ..
पर तुम्हें तो जीवन की
पोथी को बांचना है !
ज़िंदगी के हर इम्तिहान की
कॉपी को जांचना है !
भाग्य से लङ कर गढ़ जीतना है !
अपने जीवट का जौहर दिखाना है !
नट का नाच
सीखना और सिखाना है !
जमूरा नहीं.. उस्ताद बन कर
खेल दिखाना है !
खैर..देखो अब नतीजा क्या निकलता है !
तुम्हारा माद्दा पास या फ़ेल होता है !
कब तक टिकोगे बहाव के आगे ?
डूबते हैं जो बाज़ नहीं आते !
अच्छा जाओ.. जो मन में आये करो !
अभिमन्यु की तरह चक़व्यूह से लङो !
पराक़म करो !
जिसका जो होना है सो होना है !
पर तुम्हें भी जो करना है सो करना है !
जीवन की ये कैसी विडंबना है !
पर तुम्हारा ये कहना है -
विडंबनाओं को साथ लेकर जीना है.
विसंगतियों को स्वीकार करना है..
और फिर परास्त करना है.
तो ठीक है..
अब जैसा तुम कहो.
कोई चमत्कार हो ना हो,
मन का माना हो ना हो,
जीवन तो अपने विवेक से जीना है.
जीवन तो अपने विवेक से जीना है.
करारनामा
करारनामा १
जब से ...
जब से डाक में
लौट आई है,
तब से मैंने तुम्हें
चिट्ठी लिखना
छोड़ दिया है.
अब मैंने
अपने नाम आई
हर चिट्ठी को
सहेजना,
बार-बार पढना
शुरू कर दिया है.
करारनामा २
अब ..
जब से तुमने
मेरे प्यार का इज़हार,
इश्तहार से भी बेकार
करार दिया है ;
तब से मैंने
तक़दीर से तकरार
करना छोड़ दिया है.
पर अब.. मैं प्यार
देने वालों को
बेबस लाचार,
चेष्टा अनाधिकार
करने वाला..
नहीं समझता.
अब मैं
ज़रा-सा भी
प्यार-दुलार
मिले तो
बेझिझक अपनाता हूँ.
उत्सव मनाता हूँ.
जिसका स्नेह मिले,
उसका आभार
मानता हूँ.
जो आत्मीयता से
अपना कहे,
उसे हृदय से लगाता हूँ.
करारनामा ३
करार
जानते हो क्यों ?
क्योंकि बहुत कुछ खो कर
मैंने पाना सीखा है.
अवहेलना सह कर
भावनाओं का
आदर करना सीखा है.
कोई समझ क्यों नहीं पाता . .
इस उलझन को सुलझा कर
अव्यक्त को समझ लेना सीखा है.
जो मुझे नहीं मिला
मैंने देना सीखा है.
सोमवार, 2 अक्तूबर 2017
वैष्णव जन तो तेने कहिये
बापू ने कहा,
हमने सुना ।
शास्त्रीजी ने कहा,
हमने सुना ।
सुना और
जिल्द बाँध कर
ताक पर धर दिया ।
केवल उन्होंने
इन महापुरुषों का
कहा किया ।
सुना और गुना ।
मान किया ।
सिर्फ़ इसलिए नहीं ।
इसलिए कि उन्होंने
बड़ा सोचा,
और वही किया ।
और उनकी सोच को
जिस - जिसने जिया,
उसी ने उनका
वास्तविक आदर किया ।
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