शनिवार, 21 मार्च 2015
शनिवार, 14 मार्च 2015
बात
कोई तो बात होगी
जो तुमसे हर बात
कहने का
जी करता है ।
और जो बात
कहे बिना
कह दी जाती है ,
उसे ज़माना
प्यार कहता है ।
रविवार, 15 फ़रवरी 2015
छत
दफ्तर से लौटते वक़्त
रोज़ाना,
सिग्नल वाले मोड़ पर,
पुल के नीचे,
बस रूकती है
एक दो मिनट ।
अक्सर
मेरी खिड़की से
दिखाई देता है
पुल के नीचे का
एक कोना
जहाँ
एक परिवार बसता है ।
रोज़ दिखाई देता है
वह छोटा - सा परिवार ।
एक कम उम्र की औरत,
उसका छोटा-सा बच्चा,
एक बड़ी उम्र की औरत,
उसकी सास शायद . .
और संभवतः आदमी उसका ।
उनकी गृहस्थी बँधी
कुछ पोटलियों में ।
बस जब रूकती है
डेढ़-दो मिनट . .
खाना बन रहा होता है
अक्सर ।
चार ईंटों पर बना चूल्हा
उस पर एक तवा,
तवे पर सिकती मोटी रोटी
देख कर भूख लग आती है ।
बड़ी औरत हमेशा
एक ही जगह
बैठी नज़र आती है,
हिडिम्बा जैसी,
स्थापित स्तूप की तरह ।
खाना वही बनाती है ।
कभी-कभी लेटी नज़र आती है,
पोटलियों के बीच ।
असल में वही है
परिवार की मुखिया ।
गल्ले पर जैसे सेठ बैठा हो,
वह बैठी-बैठी,
छोटी-छोटी प्लास्टिक की डिब्बियों से
शायद मसाला निकालती है,
छौंक लगाती है ।
बच्चे की दूध की बोतल भी
रखी होती है ।
ज़रुरत की चीज़ें सभी
उन पोटलियों में मौजूद हैं ।
एक दिन अचानक देखा,
चूल्हा पड़ा था ठंडा ।
और सामान भी नहीं था ।
जी धक से रह गया ।
कहाँ गए ? क्या हुआ ?
मन उदास हो गया
उन्हें ढूँढता हुआ ।
अगले दिन फिर देखा . .
वही सरंजाम था ।
परिवार वापस आ गया था !
जान कर चैन आया ।
रोज़ का सिलसिला
फिर शुरू हो गया ।
पुल का कोना फिर बस गया ।
उनका चूल्हा जलता रहे ।
चूल्हे पर कुछ ना कुछ पकता रहे ।
बच्चे की दूध की बोतल भरी रहे ।
बस इसी तरह रोज़ रुका करे ।
उनसे मेरा रिश्ता बना रहे ।
और भगवान करे . .
एक दिन
उनके भी सर पर हो
एक छत ।
तुम हो
जब छत से आँगन में धूप उतरती है,
मुझे लगता है कि तुम हो ।
तुम हो ।
सुनहरी धूप की गुनगुनी छुअन तुम हो ।
मेरी हर बात में तुम हो ।
हर इक अहसास में तुम हो ।
जब घर की क्यारी में फूल खिलते हैं,
मुझे लगता है कि तुम हो ।
तुम हो ।
इन फूलों की भीनी खुशबू तुम हो ।
मेरी हर बात में तुम हो ।
हर इक अहसास में तुम हो ।
जब खेतों में पुरवाई चलती है,
मुझे लगता है कि तुम हो ।
तुम हो ।
चंचल हवाओं की अल्हड़ शोखी तुम हो ।
मेरी हर बात में तुम हो ।
हर इक अहसास में तुम हो ।
जब बरामदे में बच्चे शोर मचाते हैं,
मुझे लगता है कि तुम हो ।
तुम हो ।
शरारती बच्चों की मासूमियत तुम हो ।
मेरी हर बात में तुम हो ।
हर इक अहसास में तुम हो ।
शनिवार, 24 जनवरी 2015
बस नहीं है क्या ?
मेरे मन . .
मेरी बात सुनो ना !
इस तरह उदास रहो ना !
माना कि बहुत कुछ ठीक नहीं हुआ !
जो चाहा था वो ना हुआ !
पासा ग़लत फेंका . .
या दांव नहीं लगा ।
आखिर ज़िंदगी है जुआ ।
ख़ैर ! जो हुआ सो हुआ !
पर ये भी तो देखो . .
पौधे पर आज एक नया फूल खिला !
कुछ नमकीन कुछ ठंडी - सी है सुबह की हवा ।
स्कूल में हो रही है प्रार्थना सभा ।
बच्चों ने पार्क में जमाया आज खेल नया ।
समंदर का पानी है झिलमिला रहा !
जैसे लहरों पर हो चाँदी का वर्क बिछा !
कोई बाँसुरी देर से बजा रहा ।
जैसे जीवन के समस्त कारोबार का
सार कब से उसे है पता ।
ट्रेन का सही समय पर आना ।
बस में बैठने को सीट मिल जाना ।
जेब में ज़रुरत भर के पैसे होना ।
तमाम हादसों के बीच हाथ - पाँव सलामत होना ।
बहुत नहीं है क्या ?
बहुत नहीं है क्या ?
खुशहाल रहने के लिए ।
फ़िलहाल जीने के लिए ।
एक कल असमंजस में बीता,
आने वाले कल का ठिकाना नहीं ।
पर ये खूबसूरत अहसास इस पल का,
किसी भी हाल में गँवाना नहीं !
रविवार, 11 जनवरी 2015
सफ़ेद रिबन के फूल
और दिनों के मुक़ाबले,
बस खाली थी
और सरपट जा रही थी ।
दफ्तर वक़्त पर पहुँचने की
उम्मीद थी ।
बैठने को मिल गया ,
तो ध्यान दूसरी तरफ गया . .
अख़बार की सुर्खियाँ टटोलने लगा ।
हर सिम्त बात वही ,
पेशावर के स्कूल की ।
एक स्टॉप पर बस जो रुकी,
हँसती - खिलखिलाती,
बल्कि चहचहाती ,
स्कूल की बच्चियाँ चढ़ गयीं ।
इतनी सारी थीं
कि बस भर गयी !
स्कूल यूनिफार्म पहने,
बस्ते लिए ,
और उनकी दोहरी चोटियों पे
बने हुए थे,
सफ़ेद रिबन के फूल ।
सारी बस जैसे बन गयी थी बगिया,
जिसमें खिले थे अनगिनत
सफ़ेद रिबन के फूल ।
बस ब्रेक लगाती,
तो लड़कियाँ एक दूसरे पर गिर पड़तीं ।
उनमें से एक कहती . .
फिसलपट्टी है !
और फिस्स से हँस देती ।
एक हँसती . . उसके हँसते ही
हँसी की लहर बन जाती ।
दुनिया से बेख़बर
उनकी खुसर - फुसर ,
आँखों में चमक ,
बतरस की चहल - पहल ,
सारी की सारी बस में समा गयी ।
या बस उनमें समा गयी ।
बस कंडक्टर ने आवाज़ लगायी,
चारों तरफ नज़र घुमाई,
अब टिकट कौन लेगा भई !
जवाब में फिर सब हँस पड़ीं ,
जैसे बहे पहाड़ी नदी ।
इस लहर - हिलोर में मन में आया कहीं
भगवान ना करे . .
इनकी हँसी पर,
इन सफ़ेद फूलों पर
हमला करे कोई . .
नहीं ! कभी भी नहीं !
ऐसा ख़याल भी मन में लाना नहीं !
इन बच्चियों की हँसी
दिन पर दिन परवान चढ़े ।
यूँ ही चलते रहें
हँसी के सिलसिले !
हर तरफ़ खिलते रहें !
सलामत रहें !
सफ़ेद रिबन के फूल ।
रविवार, 23 नवंबर 2014
सुखांत कथा
आजकल हमें
सुखांत कथा ही
भाती है ।
वजह
जो भी हो ।
चाहे ये
कि वास्तविक जीवन में तो . .
अपने चाहे से
कुछ होता नहीं ।
क्या होगा ?
उस पर बस नहीं ।
और असल बात तो
ये है भई,
सुखद और दुखद का
होता है अपना - अपना कोटा ।
ज़िन्दगी में ,
सुख के सिलसिले है कभी ,
दुःख भी डट कर बैठे हैं सभी ।
वस्तुस्थिति
परिस्थिति
यथार्थ घटनाक्रम से
जूझते हैं सभी ,
कभी न कभी ।
इसमें क्या नयी बात है ?
बात तो तब है जब
कथा से जन्मे
संवेदनशीलता ।
होनहार होकर रहे
पर आत्मबल ना झुके ।
क्योंकि मित्रवर अब सहन नहीं होते ,
हारे हुए कथानक ।
अंत में सद्भावना प्रबल हो ,
और इस तरह कथा सुखांत हो ।
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