शुक्रवार, 19 जुलाई 2013

महक




किसी भी 
गाँव, गली, कूचे में 
अचानक, 
बचपन की महक 
चुपके से आ कर
लिपट जाती है ।
वैसे, 
ठीक-ठाक कहना 
मुश्किल है,
क्या अभिप्राय है 
'महक' से ।

शायद ये 
बारिश की पहली 
बौछार के बाद की 
मिट्टी की 
सौंधी - सौंधी 
महक है ।
या चूल्हे पर सिकती, 
अम्मा के हाथ की 
करारी रोटी की, 
भूख जगाती 
महक है ।
या फिर 
मंदिर में मिले 
प्रसाद के दोने की 
मीठी महक है ।
कौन जाने 
शायद ये 
दोपहर भर खेलने के 
बाद पसीने से भीगी 
कमीज़ की 
नमकीन सी 
महक है ।

कुछ चीज़ें 
बिना नाम के भी 
पहचानी जाती हैं ।
कभी - कभी 
यूँ ही 
दस्तक दे जाती हैं ।




          

सोमवार, 15 जुलाई 2013

लय



जब भी 
मेरी बेटी 
वायलिन बजाती है ..
आसपास की 
हर गतिविधि 
लयबद्ध 
           हो जाती है ।

दूध का उफ़ान 
ठंडा हो जाता है ।
घिर्र - घिर्र करता पंखा 
शांत हो जाता है ।    

जब भी 
मेरी बेटी 
वायलिन बजाती है ..

बाल्टी में 
नल से 
          पानी का गिरना ..

बाल्कनी के 
पौधों पर उगे 
                   फूलों का हिलना ..

खिड़की पर टंगे 
पर्दों से बंधे 
                 घुंघरुओं का छनकना ..

मंदिर के शिखर से 
बंधी पताका के 
                      पट का रोमांचित होना ..

पूजा घर के आले में 
प्रज्ज्वलित दीपक की 
                                लौ का कंपित होना ..

नन्हे नौनिहाल का 
घुटनों - घुटनों 
                      धीरे - धीरे सरकना ..

झुर्रियों से भरे 
दादी के चमकते चेहरे
                               का हौले से मुस्कुराना ..

.. एक लय में होता है ।

मेरे भीतर 
एक नदी 
एक लय में 
निरंतर 
           बहती है ।


  

शनिवार, 13 जुलाई 2013

जनाब ! कविता पक रही है !




जग आँगन में अँगीठी ..
विचारों की ..  
सुलग रही है ।
भावनाओं की आँच पर,
मन की पतीली में 
कविता खदक रही है ।

मनभावन महक आ रही है ।
बेसब्री सता रही है ।

आओ, झट से 
पंगत में बैठें, 
और प्रतीक्षा करें 
रचना 
परोसे जाने की ।