शनिवार, 2 अप्रैल 2022

मुखर हो हास


 नव संवत्सर 
 हों स्वर मुखर 
 आशा के
 प्रार्थना के
 साहस के
 सद्भाव के ।

 श्रम के 
 फूल खिलें
 स्वेद बिंदु बन
 भाल पर ।
 
 कर्मठ तन-मन
 दामिनी सम 
 ललकारें ..
 देह की अस्वस्थता,
 अंतरद्वंद,
 मन के कलुष को ।
 
 खुरदुरे हाथों में 
 मुट्ठी भर मिट्टी,
 मेहनत से सींची जो,
 लो ! हथेलियों पर
 फूली सरसों ।
 
 स्वर मुखर हों ।
 घर-घर मंगल हो ।
 आनंद सुगंध हो ।
 धूप-सा हास हो,
 कुम्हलाए मुख पर ।

जीवन का संबल हो
आत्मबल का शंखनाद ।
 
 

शनिवार, 26 मार्च 2022

Why ?


Great men 
Wage wars.
Ordinary people 
Pay the price,
Without understanding 
Why ?

A man 
who has played music
On the streets of Ukraine
For years ,
Looks bewildered and asks,
What's happening ?

No one has the answer.
The man looks around
Then plays on ..the music.

It was in the news.
I looked for it later
To listen again.

But I guess 
Commonplace comments 
That do not become viral
Just disappear.
Why ?


 

मंगलवार, 22 मार्च 2022

कविता


 




 


कविता सुनियेगा  ?

कमल दल पर ठहरी
ओस की पारदर्शी 
प्रच्छन्न बूंदों में ,
चेहरे की नमकीनियत में,
मिट्टी की नमी में, 
मेहनत के पसीने में, 
ठंडी छाछ में, 
गन्ने के गुङ में, 
माखन-मिसरी में,
मधुर गान में, 
मुरली की तान में, 
मृग की कस्तूरी में, 
फूलों के पराग में, 
माँ की लोरी में, 
वीरों के लहू में, 
मनुष्य के हृदय में 
जो तरल होकर 
बहता है, 
उसे कहते हैं हम
कविता ।

सोमवार, 21 मार्च 2022

गौरैया अब मत जाना


बचपन से आदत थी ।
गौरैया के चहचहाने,
गहरे से हल्के नीले होते
नभ में धुंधले पङते तारे  
और उजाला होने पर
आंख खुलती थी ।
मानो गौरैया वृंद 
आता था जगाने 
बेनागा हर सुबह ।

जनमघुट्टी में घोल कर
एक बात माँ ने 
समझाई थी ।
इंसानों और पंछियों को
पीने का पानी और 
चुगने को दाना
पहले परोसना ।
फिर दिनचर्या 
आरंभ करना ।

समय बीता ।
बचपन की सहेलियों का
जिस तरह कोई
पता न था,
ठीक वैसे ही गौरैया का
घर में आना-जाना
कम होता गया ।
कुछ ख़ास फ़र्क नहीं पङा ।
बस नींद का उचटना
उचटना आम हो गया ।

फिर एक दिन सहसा
कानों में पङी वही
बचपन वाली 
गौरैया के चहचहाने 
का मधुर गुंजन ।

चारों तरफ़ देखा
मुंडेर पर सामने 
हो रहा था बाक़ायदा 
गौरैया सम्मेलन !
शोर कभी नहीं लगा
चिङियों का चहचहाना ।

घोंसला भी बना ।
आवभगत में बना-बनाया 
नीङ भी जुटाया गया ।
मिट्टी का सपाट-सा
जल का पात्र रखा गया!
दोबारा जुङ गया नाता ।

अब अकेलापन नहीं सताता ।
सूनापन भी नहीं सालता ।
छोटी-सी गौरैया का
जल में खेलना दाना चुगना ..
इतना अपनापन अनुभव होता,
मानो मुट्ठी में धङकता हो
ह्रदय मेरा और गौरैया का ।

शनिवार, 19 मार्च 2022

रंगरेज़ कोई


रंगरेज़ कोई छुप कर आता है रोज़ ।
सूरज उगते ही बिखेर देता चहुँ ओर
सोने - सा सुनहरा रंग आसमान पर ।
और ऐसे ही रंगता जाता सारा संसार ।

खिलते कमलों को रंग देता गुलाबी, 
झरते हरसिंगार के धवल भाल पर,
केसरिया तिलक लगाता उठ भोर ही ।

वृक्षों को रंग देता हरा,सांवला भी कभी ।
फूल-पत्ती,पंछी, सतरंगी, मत पूछो जी !
चित्र में रूपहले रंग भर देती ज्यों मुन्नी !

तोता हरियल, गौरैया भूरी-सी, मोरपंखी !
मैना काली, अनगिनत रंगों की फुलवारी ।
रंगरेज़ की अदृश्य कूची मानो जादूई छङी । 
ज़रा छूते ही बहने लगती रंगों की नदी - सी !

रंगों मे रंग घोल - घोल कर ही
रंगरेज़ लगा देता रंगों की झङी !
रंगों का मेला, रंगों भरी बारादरी 
पचरंगी घाघरा, सतरंगी चूनरी !

रंगों की दुनिया में कोई कमी नहीं ।
बस चाह हो,हर रंग में,रंग ढ़ूँढ़ने की ।

फीकी न पङे नज़र रंग देखने की ।
रंगरेज़ हर रोज़ लगाता रहता फेरी ।
बेरंग न रह जाए किसी की ज़िन्दगी ।






मंगलवार, 15 मार्च 2022

शब्द संजीवनी


बहुत दिनों बाद
लौटी एक किताब..
पुस्तकालय ।

शेल्फ़ में रखी गई 
जैसे ही, हर्ष सहित 
हुआ स्वागत ।

सारी किताबों ने 
ज़ाहिर की हैरानी, 
इतने दिन बीते
कहाँ रहे भाई ?

कैसे और क्या बताऊँ ?
जीवन के घटनाक्रम 
बदल देते हैं सोच ।
शायद समझा पाऊँ ।

इस बार मुझे 
जो लेकर गई थी,
अकेली रहती थी
साथ में छोटे बच्चे ।

दिन भर खटती थी,
मुझे पढ़ कर रोती थी,
बातें करती थी मानो 
मेरे सिवा उसको
कोई समझता न था ।

बच्चे जब घर आते
खिलखिलाते, 
अनभिज्ञ माँ के
दैनिक संघर्ष से ।

माँ भी सब भूल
मेरे पन्नों पर 
लिखी कथाओं से,
व्यथा छुपा के,
परी कथा बना के
बच्चों को रोज़ 
सुनाती थी ।

ज़िम्मेदारी अपनी 
समझने लगी थी मैं भी ।
फ़िक्रमंद रहती थी ।
वो जब भी मुझे 
लौटाने की सोचती,
मैं खो जाती ।

पर एक दिन उस पर
धुन हुई सवार ।
ढ़ूँढ़ निकाला मुझे
और बहुत देर तक
हाथों में थामे बैठी रही ।

विदा की वेला आई ।
आंखें छलछलाई ।
तुम्हारी बातें मेरे
बहुत काम आईं ।
मुझमें हिम्मत जगाई ।
तुमने ह्रदय पर रखी
भारी शिला हटाई ।

उस क्षण जाना,
उत्तरदायित्व होता है 
हर किताब का ।
लिखे गए प्रत्येक 
अनुभूत शब्द का ।

ये फ़र्ज़ है हमारा ।
संजीवनी बूटी को
मूर्छित चेतना तक 
अविलंब पहुँचाना ।
अवचेतन में बो देना ।
सुप्त प्राण जगाना ।

लोग जिल्द 
और नाम देख कर
ज़रूर खरीदते होंगे,
या पढ़ने को लेते होंगे किताबें, 
पर पढ़ने-पढ़ते जो थाम ले हाथ,
उसी किताब का मानते हैं कहना,
जनम भर करते हैं जतन ।

गुरुवार, 3 मार्च 2022

प्रजा के हित में


बङे- बङे राजे आए ।
राजों से बङे उनके अहं..
अहंकार टकराए ।

जिनके नाम पर
शुरु हुआ था युद्ध ,
वो जान बचा कर
भागते नज़र आए ।

विध्वंस के बाद वे सब
आमंत्रित किए गए जब,
तथाकथित जीत का 
जश्न मनाने के लिए,
वे या तो मारे जा चुके थे
या शरणार्थी हो गए थे ।

जब राजे ने जीत का 
परचम लहराया।
सलामी देने वाला
कोई ना था ।
राजे की विजय सभा में 
राजे अकेला था ।
प्रजा का कोई
अता-पता न था ।

÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷
चित्र गूगल से साभार