सब कुछ
छिन जाने के बाद भी
कुछ बचा रहता है ।
सब समाप्त
होने के बाद भी
शेष रहता है जीवन,
कहीं न कहीं ।
सब कुछ
हार जाने के बाद भी,
बनी रहती है
विजय की कामना ।
फिर तुम्हें क्यों लगता है,
कि तुममें कुछ नहीं बचा ?
न कोई इच्छा,
न कोई भावना ?
न ही तुम्हारी कोई उपयोगिता ..
अरे! इस सृष्टि में तो,
ठूंठ भी
बेकार नहीं जाता ।
टटोलो अपने भीतर ।
संभाल कर,
और बताओ क्या
कुछ नहीं मिला ?
क्या कहा ?
बस ढांचा ?
अंदर से खोखला ..
तो क्या ?
खोखला बांस भी,
तमाम छिद्रान्वेषण के बावजूद,
केशव के प्राण फूंकने पर,
बांसुरी बन जाता है ।
फिर तुम तो मनुष्य हो ।
जो बन सके, वो करो ।
चरणों की रज ही बनो,
जो न बन सको ..
गिरिधारी की बांसुरी ।