रविवार, 24 जनवरी 2021

निरे बांस की बांसुरी

सब कुछ 
छिन जाने के बाद भी 
कुछ बचा रहता है ।

सब समाप्त 
होने के बाद भी 
शेष रहता है जीवन, 
कहीं न कहीं ।

सब कुछ 
हार जाने के बाद भी, 
बनी रहती है 
विजय की कामना ।

फिर तुम्हें क्यों लगता है,
कि तुममें कुछ नहीं बचा ?
न कोई इच्छा, 
न कोई भावना ?
न ही तुम्हारी कोई उपयोगिता  ..

अरे! इस सृष्टि में तो,
ठूंठ भी 
बेकार नहीं जाता ।

टटोलो अपने भीतर ।
संभाल कर,
और बताओ क्या 
कुछ नहीं मिला  ?

क्या कहा  ?
बस ढांचा ?
अंदर से खोखला ..
तो क्या  ?

खोखला बांस भी, 
तमाम छिद्रान्वेषण के बावजूद, 
केशव के प्राण फूंकने पर,
बांसुरी बन जाता है ।

फिर तुम तो मनुष्य हो ।
जो बन सके, वो करो ।
चरणों की रज ही बनो,
जो न बन सको ..
गिरिधारी की बांसुरी ।

शुक्रवार, 22 जनवरी 2021

संदर्भ जीवन का


इस मिथ्या जगत में 
एक सच्ची अनुभूति की
आस है मुझे, इसलिए 
हर करवट में दुनिया की
दिलचस्पी है मेरी ।

इतने शानदार खेल-तमाशे 
चप्पे-चप्पे पर जिसने सजाए,
वो जो हो हमारे-तुम्हारे लिए,
नीरस तो नहीं होगा ।

कुछ तो होगा ऐसा,
जिसके लिए जी-जान लगा के
मेंहदी की तरह रचता गया ..
रचता गया संसार चक्रव्यूह जैसा,
किसके लिए  ?
अभिमन्यु के लिए  ??
छल और बल की क्षुद्र विभीषिका 
डिगा ना पाई जिसकी सत्यनिष्ठा ।

इसीलिए मैंने कहा ना ।
इस विलक्षण अनुभूति का
मुझे भी है स्वाद चखना ।

सबके जीवन में घटती है एक लोककथा ।
हर पङाव पर मिलती है कोई संभावना ।
भ्रम को भेदने वाला कोई तो बाण होगा ।
अभिमन्यु छला गया पर परास्त ना हुआ । 
उसके प्राणों में जिस स्वर ने अलख जगाया
निर्भय चेतना का ... कभी तो भान होगा
मनमोहन की बाँसुरी के उस सम्मोहन का ।

गुरुवार, 14 जनवरी 2021

उङ रही पतंग है



सुबह सुबह सांकल खटका के,
चंचल हवा आ बैठी सिरहाने ।
हाथों में थामे थी चरखी और पतंग, 
बातों से छलके थी बावली उमंग !
बोली जल्दी चलो खुले मैदान में !
सूरज भी आ डटा है आसमान में !
झट से रख लो संग पानी की बोतल !
मूंगफली,तिल के लड्डू,रेवङी,गजक !
देखो टोलियाँ तैनात हैं आमने-सामने !
पतंगें भी कमर कस के तनी हैं शान से !
बहनें मुस्तैद हैं चरखियां लिए हाथ में !
हरगिज़ आंच ना आए भाईयों की आन पे !
लो वो उठीं ऊपर और छा गईं आकाश में !
पतंगें ही पतंगें टंकी हैं धूप की दुकान में !
बच्चे तो बच्चे बङे भी बच्चे हो गए !
हंसी - ठिठोली घुल गई आबो-हवा में !
जिसने पतंग काटी सिकंदर से कम नहीं !
जिसकी कट गई उसके दुख की सीमा नहीं !
खेल क्या है ये तो भावनाओं की उङान है !
डोर है, पतंग है और खुला आसमान है !
पतंगों की कोरों पर झूलती उमंग है !
ठान लो यदि संभावनाएं अनंत हैं !
वो काटे चिल्ला कर नाचे मस्तमौला है !
लूटने पतंग जो दौङा वो मलंग है !
सच्चा है सारा खेल झूठी ये जंग है !
झूठी है हार-जीत सच्चा मेलजोल है !


रविवार, 20 दिसंबर 2020

प्रफुल्ल फूल



टहनियों पे खिलते फूल ।
पूजा की टोकरी में रखे फूल ।
माला में पिरोए फूल ।
चित्रों में सजीव फूल ।
किताबों में संजोए फूल ।
गुलदस्तों से झांकते फूल ।
सेहरे की लङियों में फूल ।
वेणी में गुंथे गजरे के फूल ।
मन की टोह लेते फूल ।

मन की टोह लेते फूल ।
मर्म को छू लेते हैं फूल ।

ख़ैरियत का पैग़ाम
लाते हैं फूल ।
दुआओं भरा सलाम
पहुंचाते हैं फूल ।

तरह-तरह से बचा के
रखे जाते हैं अपने-अपने 
जिगरी .. मनपसंद फूल ।
दवा की मानिंद वक़्त पड़े 
काम आते हैं फूल ।
 
और फूलों की सुगंध ?
कैसे सहेजी जाती है ?

आप ही गुपचुप.. स्वतः
प्राणों में समा जाती है,
कल्पना में बिखर जाती है,
जीवन में घुल-मिल जाती है,
प्रफुल्लित फूलों की सुगंध ।

शनिवार, 5 दिसंबर 2020

ढलते सूरज ने भी देखा

आज संध्या समय
जो बाला दिया, 
बहुत देर तक
जलता रहा ।

अकंपित लौ
तम के भाल पर 
तिलक समान
शोभायमान ।

लक्ष्य केवल साध्य 
पूर्णतः समर्पित 
ध्यानावस्थित लौ ।

जब-जब दीप बाला,
जगमगाता देखा 
अंतर के देवालय का
छोटा-सा आला ।

मंगलवार, 29 सितंबर 2020

एक रुपहला फूल

कोई कोई दिन 
होता है ऐसा ..
स्वाद उतरा हुआ सा
फीका ..मन परास्त 
हार मान लेता,
जब काम सधते नहीं 
किसी तरह भी ।

तब ही अकस्मात 
नज़र पड़ी बाहर
रखे गमले पर ।

जिस पौधे की 
सेवा बहुत की थी,
फिर छोङ दी थी
सारी उम्मीद ।

उसी पौधे पर
नाउम्मीदी को 
सरासर 
मात दे कर,
खिला था 
एक रुपहला फूल ।