शुक्रवार, 8 मई 2020

अंतरंग

ध्वस्त मनःस्थिति
कोई राह सूझती न थी
सन्नाटा पसरा था
बाहर और भीतर
शब्द-शून्य क्षण था
पत्ता भी हिलता न था 
अव्यक्त असह्य पीड़ा का
बादल घुमड़ रहा था ।

इतने में सहसा 
दूर कहीं टिमटिमाया
जुगनू सा
आरती का दिया
और सुनाई दी
घंटी की धीमी ध्वनि ।

भीतर कुछ पिघल गया
एक आंसू ढुलक गया ।
कोई तार जुड़ गया ।
कोई ना था पर लगा
कोई सुन रहा था
समझ रहा था
साथ था सदा।

मंगलवार, 5 मई 2020

सारी लड़ाई


सारी रस्साकशी !
सारी खींचतान !
सारी लड़ाई ..
मुल्कों के बीच ..
संप्रदायों के बीच..
समुदायों के बीच ..
परिवारों के बीच ..
लोगों के बीच ..
रिश्तों के बीच..
अधिकार की नहीं..
न्याय की नहीं ..
सामंजस्य की नहीं..
विरोधाभास की नहीं ..
विचारधारा की नहीं ..
टकराव की नहीं..
पैसे की नहीं ..
सत्ता की भी नहीं ..
आदमी की बसाई
इस बेहतरीन दुनिया की
सारी लड़ाई,
मानसिकता की ..
थी, है और होती रहेगी ।

शनिवार, 2 मई 2020

कविता क्या खाक !


वाह भई वाह !
क्या खूब !
क्या कहने !
छा गए !

बहुत कामयाब रहा !
कवि सम्मेलन तुम्हारा !
लोगों ने बहुत सराहा !
खूब तालियां बजी !
चहुं दिक चर्चा हुई !

पर एक बात बताओ भई !
कब से माथे को मथ रही !

तुमने बात बड़ी अच्छी कही !
पर आचरण में दिखी नहीं !

कविता अगर जी नहीं
तो क्या खाक लिखी !


शनिवार, 25 अप्रैल 2020

मुकम्मल जहाँ


"कभो किसी को 
मुकम्मल जहाँ
नहीं मिलता",
क्योंकि मेरा मुकम्मल
उसके मुकम्मल से
नहीं मिलता ।

तो ये मुकम्मल हुआ -
बेमुक़म्मल जहाँ भी,
है तो आखिर अपना ही !
क्यों ना उसका भी
लुत्फ उठाया जाए !
और एक दूसरे के लिए
एक मुकम्मल जहाँ
तराशा जाए ।

जिस हद तक
मुमकिन हो गढ़ना,
सबके मुताबिक
एक मुकम्मल जहाँ ।


शुक्रवार, 17 अप्रैल 2020

घर पर हैं आजकल


हम अपने घरों में बंद हैं ।
घर एक कमरे से लेकर 
कई कमरों का हो सकता है ।
बेशक़ घर घर होता है ।
घर में रहने वाला अकेला 
या पूरा कुनबा हो सकता है ।
बेशक़ घर घर होता है ।

बंद हैं हम ..पर घर पर हैं ।
रातों रात खानाबदोश ..
बेरोजगार नहीं हो गए ।
खुशकिस्मत हैं वो लोग
जो अपने लोगों के संग 
बीमारी से लड़ने जंग में हैं,
जंग के मैदान में नहीं ।

हमारी जंग भी मामूली नहीं ।
दुश्मन का ठौर-ठिकाना नहीं ।
किससे लङना है पता नहीं ।
पर बेशक़ रहना है चौकन्ना ।
मोर्चे पर दिन-रात मुस्तैद ।

फिर भी वास्तव में हम 
घरों में बंद बेहतर और
बेहतरीन हालात में हैं ।
सर पर हमारे छत तो है ।
काम और जेब में वेतन है ।
हाथ-पाँव अभी चलते हैं ।
दुख बाँटने को कोई है ।
झल्लाने को परिवार है ।
कोसने की फुरसत तो है ।
जी बहलाने को बच्चे हैं ।

पर जिनके पास इन सब में से
कोई एक चीज़ भी नहीं है,
उन पर क्या बीत रही है !!!

अगर फिर भी हमें अफ़सोस है ।
और सिर्फ़ अफ़सोस ही अफ़सोस है,
तो इसमें किसी का भी क्या दोष है ?

ये वक़्त भी बीत ही जाएगा ।
वक़्त की तो फ़ितरत ही है
बीतते बीतते बीत जाने की ।

इस वक़्त की नब्ज़ थामनी है यदि
जुगत लगानी होगी हमें ही ।

तुम देखना वक़्त कभी भी
खाली हाथ नहीं आता ।
बहुत कुछ ले जाता है ऐसा
जिसकी कद्र हमने नहीं की ।
बहुत कुछ बदल कर जाएगा
इस बार भी तुम देखना ।
बहुत कुछ सिखा कर जाएगा 
जो हम खुद नहीं सीख सके ।
मूल्यों का मूल्य समझा कर जाएगा ।

वक़्त की नदी सब बहा कर ले जाएगी
किंतु तट की भूमि उपजाऊ कर जाएगी ।

जिस घर को सब कुछ दाँव पर लगा कर बनाया ।
कुछ दिन उस घर के हर कोने को जी कर देखो ।



गुरुवार, 9 अप्रैल 2020

खूब रंगो !


खूब रंगो
अंतर्मन रंगो
सकल भुवन रंगो
कोरी चूनर रंगो
काग़ज़ रंगो
स्वप्न रंगो
बोल रंगो
सुर रंगो
ताल रंगो
अपनी पहचान रंगो
जितना जी चाहे रंगो
खूब रंगो ! 

अपने रंगो
दूजे रंगो
भाव रंगो
साज रंगो
प्राण रंगो
दरो-दीवार रंगो
खेल-खिलौने रंगो
अपनी भावनाएं रंगो !
जितना जी चाहे रंगो !
खूब रंगो ! 

समय की सांसें रंगो
भवितव्य की गिरहें रंगो
घुमड़ती घटाएं रंगो
बल खाती हवाएं रंगो
जल की हलचल रंगो
नैया की पतवार रंगो
जितना जी चाहे रंगो
जीवन में हर रंग भरो
मेहँदी की तरह रचो !
खूब रंगो ! खूब रचो !

बुधवार, 8 अप्रैल 2020

उपहार

उपहार होते हैं
कई मिज़ाज के ।

एक होते हैं व्यवहार 
निभाने के लिए ।
दूजे होते हैं संवाद 
बढ़ाने के लिए ।

वो कहने के लिए
जो कहते ना बने ।
गिनती के शब्दों में
हरगिज़ बांधे न बंधे ।

कुछ होते हैं
प्यार दुलार में पगे ।
मीठे बताशों से ।

कुछ होते हैं
बात समझाते हुए ।
धैर्य धन से सधे ।

कुछ होते हैं
नटखट मासूम से ।
जग भर से अनोखे ।

और कुछ होते हैं
आशीर्वाद सरीखे ।
मर्म को झंकृत करते ।

ये उपहार होते हैं
खेतों में बोए 
बीज जैसे,
जिनसे उपजती है
लहलहाती फसल ।

औपचारिकता से परे ..
अचानक सूझी
कविता जैसे !
हृदय में टिमटिमाती
आस जैसे ।
बड़े सिर पर रख दें
हाथ जैसे ।


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रिश्ता तो कोई ऐसा ख़ास नहीं. पर उन्हें जय मौसाजी के संबोधन से जाना है. वरिष्ठ एवं प्रतिष्ठित कलाकार ,आर्ट स्कूल के प्रधानाध्यापक, लेखक और अपने सिद्धांतों पर अडिग  व्यक्तित्व के रूप में उन्हें जाना और हमेशा यह तमन्ना रही कि कभी उनसे सीखने का अवसर मिले. वह अवसर तो पा नहीं सके पर अचानक एक दिन उनका भेजा उपहार मिला बिना किसी अवसर के ! चहेते कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की हृदयस्पर्शी पंक्तियाँ इतने सुन्दर स्वरुप में आशीर्वाद की तरह मिलीं. कविता का अक्षय पात्र ! जो चाहे इसमें समेटो ! जो चाहे बांटो !

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