शुक्रवार, 26 अप्रैल 2019

किताबें सब जानती हैं

किताबें ..
झकझोरती हैं,
नींद से जगाने के लिए ।
कचोटती हैं,
ग़लतियों के लिए ।
झगड़ती हैं,
हमारे पूर्वाग्रहों से ।
चुनौती देती हैं,
अपना मुस्तकबिल
खुद गढ़ने के लिए ।
कुरेदती हैं,
दिल की दीवारों पर
जमी काई को ।
किताबों से कुछ नहीं छुपा ।
किताबों को ही चलता है पता   
चुपके से टपका आंसू,
धड़कनों की खुराफ़ात,
अनकही बात ..
किताबें सब जानती हैं ।

बुधवार, 17 अप्रैल 2019

टूटे से फिर ना जुड़े


अनायास ही,
हाथ से छूट गई !
छन्न से टूट गई,
मेरी प्रिय चूड़ी !
हा कर ताकती रह गई ..
कुछ ना कर सकी !

क्या फिर से जुड़ सकेगी 
चूड़ी जो टूट गई ?
क्या दिल भी 
टूटते हैं यूँ ही ?
क्या स्वप्न भी   
चूर-चूर होते हैं ऐसे ही ?
टूट कर जुड़ते भी हैं कभी ?

पता नहीं.
बाबा रहीम तो कहते हैं यही ..
टूटे से फिर ना जुड़े 
जुड़े गाँठ पड़ जाए .. 

फिर भी 
कोशिश तो करते ही होंगे सभी
टूटे को जोड़ने की.

कोशिश फिर ये 
क्यूँ ना करें ?
स्वप्न हो या दिल कभी 
टूटे ही नहीं !

संभाल कर रखें सभी 
सहेज कर रखें सदा ही 
स्वप्न हो, दिल हो या चूड़ी.
   

मंगलवार, 9 अप्रैल 2019

अपना कोना



"जीवन से लम्बे हैं बंधु , इस जीवन के रस्ते  .. " सुरम्या ने अपना चहेता गीत इतने दिनों बाद सुना तो वॉल्यूम बढ़ा दिया। मन्ना दा का गाया यह गीत जब से सुना था, तब से ही ना जाने क्यों बहुत अपना लगता था। अपना शहद-नीबू पानी का गिलास लेकर सुरम्या खिड़की के पास बैठ गई। खिड़की के पास लगे काले पत्थर पर बैठना उसे बेहद सुकून देता था।  खिड़की में लगे तीन-चार पौधे और विविधभारती पर बजते गीत उसके हमेशा के साथी थे।  हमेशा के हमजोली। बाकी सब आते-जाते रहे जीवन भर।  आज भी यह गीत प्ले हुआ तो ऐसा लगा मानो कोई सुन रहा है।  कोई समझ रहा है, जो उस पर बीत रही है। वास्तव में  .. जीवन से लम्बे हैं बंधु, इस जीवन के रस्ते  ..  

सब अपने-अपने रास्ते चले गए थे। पति अभिराम अपने काम में व्यस्त सीढियां चढ़ते जा रहे थे। अपनी कामयाबी से बेहद खुश। घर-परिवार सुरम्या के सुपुर्द कर निश्चिन्त। और सुरम्या से ही मीलों दूर।  बहुत दूर। 

बच्चे बड़े हो गए।  नया-नया उड़ना सीखा था।  पंख फैलाये आकाश की ऊंचाइयां नापने में लगे थे।  हाँ, तो क्या हुआ ? सुरम्या तुम यही तो चाहती थीं। कामयाब और खुश परिवार।  हाँ।  बात तो सही है।  पर यह नहीं सोचा था कि कामयाबी और ख़ुशी के साथ उदासी भी चुपके से आकर  घर में बस जाएगी . . बल्कि उसी के मन में घर कर जाएगी। 

दिन भर घर ख़ाली रहने लगा जब   .. सुरम्या ने धीरे-धीरे इतने बरसों से मन में लगी गिरहों को खोलना शुरू किया।  सबके चले जाने के बाद पूरा घर उसका स्टेज बन जाता। सुरम्या को हमेशा से अच्छा लगता था  .. बेकार चीज़ों को जोड़-तोड़ कर उन्हें काम की सुन्दर चीज़ें बनाना।  अब फिर से उसने घर के कोने-कोने को तराशना शुरू किया। पर दौड़ते-भागते परिवार की नज़र में कुछ भी ना आया।  जब कभी सब मिल कर बैठते और अपने-अपने काम के बारे में बढ़-चढ़ कर बताते, वह भी धीरे से अपनी बनाई चीज़ों के बारे में बताना शुरू करती।  पर सब जैसे एक औपचारिक मुस्कुराहट के साथ आगे बढ़ जाते। उसका सारा उत्साह ठंडा पड़ जाता। इन बैठकों में वह असहज हो उठती।  फिर उसने कोशिश करना छोड़ दिया। 

एक दिन उसे ख़याल आया कि उसकी बनाई चीज़ें उपयोगी और सुन्दर तो हैं पर उनसे वह बात नहीं कर सकती।  उस तरह नहीं जुड़ सकती जैसे किसी सजीव  .. क्यों ना खिडकियों को पौधों से सजा दे ! और चिड़िया के लिए घर भी बना दे !

फिर क्या था ! सुरम्या व्यस्त हो गई पौधों की बच्चों की तरह देखभाल करने में।  गौरैया के लिए सुन्दर-सा घर भी बनाया।  फूल खिलने लगे। गौरैया आकर बस गई।  आख़िरकार, उसने एक अपना कोना बना ही लिया था, घर की बेख़बर दुनिया में।  इस कोने में बैठ कर काम करने में मज़ा भी आने लगा। 

एक दिन उसके यहाँ काम करने वाली गुलाब ने उससे कहा,"भाभी, आप कितनी सुन्दर चीज़ें बनाती हो, इसको बाज़ार में बेचती क्यों नहीं ?"

सुरम्या बोली,"अरे ! तू भी क्या बेकार की बातें करती है ! ये कौन खरीदेगा ?"

गुलाब ने कहा,"भाभी, सब तरह के खरीददार होते हैं।  लोगों को अलग चीज़ चाहिए होती है।  जैसी किसी के पास ना हो। तुम कर के तो देखो ! मेरे घर के पास एक दीदी ऐसा ही सामान बनाती है। पर तुम्हारे जितना सुन्दर नहीं। फिर भी उसका दुकान चलता है। "

सुरम्या ने सोचा चलो ये भी कर के देखने में क्या बुराई है।  अपना सामान दिखाया दो-तीन दुकानदारों को। उन्हें अच्छा लगा। एक ने हामी भर दी। कुछ दिन लगे, और सामान बनाने में।  फिर दुकान में सामान पहुंचा दिया, गुलाब की मदद से। 

फिर इंतज़ार के दिन।  उसके राज़दार थे - गुलाब, पौधे और गौरैया। लगभग तीन महीने बाद कुछ सामान बिका। सुरम्या को ज़रा चैन आया।  पर गुलाब की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था ! 

अभी कुछ देर पहले गुलाब अपनी कॉलेज में पढने वाली  बेटी जूही को लेकर आई थी।  उसने बताया कि वह अपनी सहेली के लिए गिफ्ट लेने गई थी।  घर आई तो गुलाब ने खुश होकर बताया कि ये तो भाभी की बनाई चीज़ है ! पर जब उसने दाम बोले तो गुलाब का माथा ठनका और वो सीधे सुरम्या  के पास बेटी को लेकर आ गई।  समझ में आ गया कि दुकानदार सुरम्या को कम पैसे दे रहा था।  पर ज़्यादा दाम पर बेच रहा था।  वह झूठ बोल रहा था।  

सुरम्या का मन फिर खिन्न हो उठा।  उसे लग रहा था  .. वह हर जगह ठगी गई।  रिश्तों में, जो अपने होकर भी उसकी भावनाओं और प्रतिभा से अपिरिचित थे। और अब ये  .. 

अचानक उसका ध्यान गौरैया के शोर मचाने पर गया। गौरैया बहुत ज़ोर से शोर मचा कर उसे पुकार रही थी। यह सिलसिला कई दिनों से चल रहा था। गौरैया के घर में बड़ी चिड़िया मतलब..मैना आकर घर बसाना चाहती थी।  बार-बार आकर चोंच मार कर उन्हें डराती थी। उनके शोर मचाते ही सुरम्या कहीं से भी दौड़ कर आती और मैना को उड़ाती। इस बार भी सब भूल कर सुरम्या उठी और मैना  को भगाया। थोड़ी देर में गौरैया का जोड़ा हौले-हौले फुदक कर पास आया और घर में चली गया ।  शांति हो गई। 

लेकिन इस छोटी-सी उथल-पुथल ने सुरम्या की सोच का कोई तार झनझना दिया था।  इस छोटी-सी गौरैया के जीवन में कितनी अनिश्चितता थी। दिन में कई बार बड़ी चिड़िया का आक्रमण होता था। खतरे की तलवार हमेशा लटकती रहती थी सर पर।  पर इस नन्हे से जीव में जीने की अदम्य इच्छाशक्ति थी, जो कभी भी उसे हार मान  कर बैठने नहीं देती थी। खतरा टला।  चहचहाना शुरू !

सुरम्या को लगा अगर यह छोटा-सा जीव कभी भी अपने को निरीह नहीं मानता। एक पल खतरों से जूझता है, और दूसरे ही पल फिर वही चहचहाना, तिनके जोड़ना, बच्चों को दाना खिलाना,पंख फैला कर उड़ना .. वही सामान्य जीवन क्रम चलने लगता है तो  ..  

... तो उसके पास तो बहुत साधन हैं, विकल्प हैं और सामर्थ्य है। अब तक कभी हार मान कर आंसू नहीं बहाए तो अब क्यों ? ठगे जाकर भी औरों को ना ठगने का संकल्प ही उसका सबसे बड़ा संबल है। दुनिया बहुत बड़ी है।  इस ठौर नहीं तो किसी और ठौर। 

हिम्मत आते ही सुरम्या को समझ में आ गया कि उसे क्या करना है।  गुलाब और जूही को बुला कर उनसे बात की और तय किया कि जूही के कॉलेज में जब फेयर लगेगा तो जूही अपने स्टाल में सुरम्या का सामान रखेगी और अच्छे दामों में बेचेगी। सबको अपना नंबर भी दे देगी ताकि फिर किसी को कुछ चाहिए हो तो सीधे बात करे। अपने ख़ाली समय में जूही वह सामान पहुंचाती रहेगी। आगे-आगे फिर देखेंगे।  

अब जाकर सुरम्या को सच में चैन आया।  जूही के हाथ में उसकी मेहनत के चार पैसे आयेंगे। और सुरम्या को मिलेगा सबसे बड़ा धन - संतोष धन। कुछ पैसे भी मिलने से परहेज नहीं !

सहसा गौरैया का चहचहाना सुन कर सुरम्या अपने कोने में जाकर बैठ गई और उसका पंख फैला कर बार-बार उड़ना,फुदकना और चहचहाना देख कर मुस्कुराने लगी। 

पंख हैं, तो उड़ने से डरना क्या ? 


बुधवार, 3 अप्रैल 2019

सही क़दम




बारिश रुक गयी थी । पर बादल थे । और ठंडी बयार बह रही थी । चाची ने बेसन की गरम-गरम पकौड़ियाँ बनायीं थीं । सारे के सारे चचेरे भाई-बहन गुट बना कर  बाहर बरामदे में बैठे हुए थे । अनुभा जो इन सब में  बड़ी थी, अभी-अभी अदरक वाली चाय बना कर ले आई थी । चाय ही नहीं, बातों और गप्पों की भी चुस्कियां सब ले रहे थे ।

इतने में प्रभात को सूझा कि क्यों न इतने अच्छे मौसम में गोल चक्कर घूमने जाया जाये ! एकमत से सभी झट तैयार हो गए । चांडाल चौकड़ी निकल पड़ी घूमने । स्कूल में पढ़ने वाले नील, सायली और पायल । कॉलेज में पढ़ने वाले अनिकेत, निखिल और अनुभा ।

गोल चक्कर से घूम कर लौटने लगे तो रास्ते में एक मूंगफली बेचने वाला बच्चा मिला । सबने एक-एक पुड़िया ली । चलते-चलते अनुभा और सायली थोड़ा आगे निकल गए । बाकी चारों एक-दूसरे की खिंचाई करते हुए ज़रा पीछे रह गए थे और अपने में मशगूल थे ।

अनुभा और सायली अपनी बातों में इतनी मगन थीं कि सामने से आते दो लड़कों पर उनका ध्यान नहीं गया । उनमें से एक लड़का अचानक सायली से टकरा गया और उसका दुपट्टा खींचने लगा । अनुभा ने जैसे ही ये हरकत देखी , वह लड़के पर झपट पड़ी और उसका कालर पकड़ कर उस पर चिल्लाने लगी , "क्या ? क्या कर रहा है ? हाँ  ! क्या कर रहा है ?  

बाकी चारों का अब ध्यान गया इस ओर ।  चारों भाग कर आये और अनुभा को उस लड़के से अलग करने की कोशिश करने लगे ।
अनिकेत और निखिल बोले, "अनुभा ! अनुभा ! तू हट ! हम देखते हैं !"
नील बोला, "क्या हुआ दीदी ?" … "क्या हुआ सायली ?"

अनुभा ने किसी की नहीं सुनी । उस लड़के के कालर पर अनुभा की पकड़ और कस गयी । उसका चेहरा गुस्से से तमतमा रहा था । उसने अपने भाइयों को परे धकेल दिया और उस लड़के को धक्का देकर पास ही पड़ी बेंच पर ले गयी । सड़क के किनारे थी ये पत्थर की बेंच ।

अनुभा की प्रतिक्रिया उस लड़के के लिए पूर्णतः अनपेक्षित थी । वह भौंचक्का रह गया था । उसकी सारी मस्ती काफ़ूर हो गयी थी । वही हाल उसके साथ वाले लड़कों का भी था । अनुभा ने धक्का दे कर उस लड़के को बेंच पर बैठा दिया और उस पर अपनी पकड़ ढीली ना करते हुए, बेंच पर उसके पास बैठ गयी ।

अनुभा के चेहरा अभी भी  तमतमा रहा था पर उसने एकदम शांत और गंभीर आवाज़ में उस लड़के से कहा - "क्या नाम है तुम्हारा ?"
लड़के की आवाज़ मुश्किल से फूटी, "सिद्धार्थ । "
अनुभा, "नाम तो बड़ा अच्छा है । काम ऐसे टुच्चेपने के क्यों करता है ?"
सिद्धार्थ कुछ ना बोल पाया ।
अनुभा ने कड़क कर कहा, "मोबाइल दे अपना !"
सिद्धार्थ अब गिड़गिड़ाने लगा - "गलती हो गयी दीदी ! माफ़ कर दो ! सॉरी !"
अनुभा फिर कड़की, "फ़ोन दे अपना चुपचाप !"
सिद्धार्थ सकपका कर जेब से फ़ोन निकालने लगा । फ़ोन निकाल कर उसने अनुभा को दे दिया और फिर गिड़गिड़ाने लगा - "दीदी ! सॉरी ! सॉरी बोला ना दीदी ! पुलिस को फ़ोन मत करना प्लीज़ ! प्लीज़ !"
अनुभा - "अगर पुलिस को फ़ोन करना होता तो मैं अपने फ़ोन से भी कर सकती थी । हाथ हटा  .... ! पर . . तेरे फ़ोन में तेरे घर का नंबर होगा ना ! 
घर  … home  … ये रहा ।"    
सिद्धार्थ ने घबरा कर अनुभा का हाथ पकड़ लिया- "दीदी नहीं ! घर पर फ़ोन नहीं करना ! घर पर नहीं प्लीज़ !" सिद्धार्थ हाथ जोड़ कर कहने लगा - "मुझे मार लो आप लोग ! पर घर फ़ोन नहीं करना प्लीज़ !"
अनुभा - "क्यों ? घर पर फ़ोन क्यों नहीं ? ऐसा क्या किया है तुमने ? किस बात का डर ?"            
सिद्धार्थ - "नहीं ! नहीं ! प्लीज़ दीदी !"       
अनुभा - "तेरे घर पर माँ होगी ! बहन होगी ! क्यों ? उनको बताते हैं ना  . . तू क्या कर रहा था !"
सिद्धार्थ - "नहीं ! नहीं !"
अनुभा - "ठीक है । अगली बार किसी लड़की को परेशान करने का मन करे तो पहले अपनी माँ और बहन को याद कर लेना ! समझा ! "
ऐसा कहने के साथ अनुभा ने एक ज़ोर का तमाचा रसीद किया सिद्धार्थ के गाल पर और उठ खड़ी हुई, सिद्धार्थ का कालर छोड़ कर । सिद्धार्थ ने डरते हुए अनुभा के भाइयों की तरफ देखा । फिर सायली की तरफ देख कर नज़रें झुका लीं और बोला , "सॉरी । "

अनुभा ने सायली का हाथ पकड़ा और घर की तरफ़ चलने लगी । कुछ दूर तक सब चुपचाप चलते रहे । फिर अनिकेत बोला , "बहुत हिम्मत की तूने अनुभा । पर अगर उन लड़कों के पास चाकू, छुरा होता तो ?"

अनुभा ने कहा , "हो सकता था , वो हमें चोट पहुँचाते , पर खतरा मोल लेना ज़रूरी था । आखिर इसी रास्ते से कल हम सबको स्कूल या कॉलेज जाना ही पड़ता । कैसे जाते ? ऐसे ही डर - डर कर ?" ये कह कर अनुभा ने अनिकेत की ओर देखा और चुप हो गयी । 

कुछ देर में अनुभा फिर बोली , "और अपना रास्ता सुरक्षित करने के साथ-साथ कभी-कभी हमें भूले-भटकों को भी रास्ता दिखाना पड़ता है । ज़रूरी है ।"

अनुभा के चेहरे पर मुस्कराहट आ गयी और सभी भाई-बहन भी एक दूसरे की तरफ़ देख कर मुस्कुराने लगे । ये सहीकदम उठाने की आत्मविश्वास भरी मुस्कान थी ।

मंगलवार, 2 अप्रैल 2019

The Sepoy Revolution




Workers cleaning the gutters
Without the safety gears
Died of poisonous gases.
Cried the bold headlines.

We the moral custodians
We the conscientious
We the sympathetic righteous
Shed thought-provoking tears.
Blamed the insensitive parties
And debated the dubious ethics.

While we hurled accusations
And became moral champions.
Three young students set to work
To figure out practical solutions.
They have finally devised an option.
To replace human scavengers
With affordable robotic scavengers.

We just found fault with the system.
They simply solved the problem.

Now it's our turn again to seek justice.
Insist on getting the idea implemented.

If opportunities come disguised as problems..
Then here is a mighty challenge for us to overcome.



Story Courtesy : Social Story
Image Courtesy : The Hindu


बुधवार, 27 मार्च 2019

बूंद


तुम सरल 
जल की बूंद,
ओस की बिंदी,
अश्रु का मोती,
निश्छल पारदर्शी ।

क्षणभंगुर ..
पर अमिट
पावन स्मृति
क्षीर सम ।

सूर्य रश्मि का
परस पाकर
बन जाती
पारसमणि ।

तुम कहीं
जाती नहीं ।
विलय होती ।
बन जाती
अंतर्चेतना।

सहसा
समा जाती,
सहृदय
पुष्प की
पंखुरियों में ।

तुम निरी
इक बूंद !

बूंद में ही
खिलता
सजल सतरंगी
इंद्रधनुष ।