सब हिसाब मांगते हैं ।
पल-पल का हिसाब मांगते हैं ।
बच्चे अपने माँ-बाप से
गिन-गिन कर हिसाब मांगते हैं।
पूछते हैं बार-बार गुस्से से,
आपने हमारे लिए क्या किया ?
जो किया क्या वो काफ़ी था ?
जो नहीं किया उसका हिसाब कौन देगा ?
पति-पत्नी एक दूसरे से,
एक दूसरे के परिवारों से,
चुन-चुन कर हिसाब मांगते हैं।
तुमने मेरे साथ ऐसा किया !
तुमने मुझे क्या से क्या बना दिया !
तुम्हारे घरवालों को मैंने कितना झेला !
कौन इन बातों का हिसाब देगा ?
अपने दोस्त हिसाब मांगते हैं।
दोस्ती की बदौलत नफ़ा-नुक्सान जो हुआ ,
एक-एक पाई का हिसाब मांगते हैं ।
इतने दिनों की दोस्ती में मुझे क्या मिला ?
तुमने आख़िर मेरे लिए क्या किया ?
मैंने जो निष्काम भाव से तेरे लिए किया,
उस निस्वार्थ मित्रता का हिसाब कौन देगा ?
सब हिसाब मांगते हैं।
और एक दिन ऐसा आता है,
जब जीवन हमसे हिसाब मांगता है ।
तुम्हें तो मैंने जीवन उपहार दिया था ।
तुमने उसे हिसाब-क़िताब कैसे समझ लिया ?
संसार ने तुम्हें बहुत कुछ दिया ।
जो रह गया या कलेजे को बींध गया,
तुमने उसे ही जीवन की धुरी बना लिया ?
जीवन का सार जो तुमने नहीं जाना,
उसका हिसाब कौन देगा ?