बुधवार, 4 जून 2025

सच से साक्षात्कार



सचमुच.. सच शरारती है बङा !

जाने कब पीछे से दबे पाँव आकर

धौल जमाता है ज़ोर की छुप कर !

और फिर चंपत हो जाता है फ़ौरन !

रेत जैसा हाथों से जाता है फिसल,

अंजुरी में जैसे टिकता नहीं जल ।

बौराई पवन के झोंके की तर्ज पर

छूकर आगे बढ़ जाता है झटपट !

वर्षा की फुहार का फाये सा स्पर्श 

गीली मिट्टी में समा जाता अविलंब।

इंद्रधनुष पल भर में होता ओझल

ऐसे ही नहीं देखा प्रत्यक्ष कभी सच ।


अगोचर को जानने मूंदे अपने नयन

ध्यान लगाना चाहा श्वास साध कर ।

पूर्वाग्रह अनेक सूखे पत्तों से गए झर

धूमिल हुआ शिकायतों का पतझङ ।

यात्रा में मिली जो वृक्ष की छाँव सघन

बेकल मन थका तन हो गया शिथिल

पाकर तने की टेक पलक गई झपक ।

अनायास ही हुआ कुछ ऐसा आभास

गले से लगा कर और रख सिर पर हाथ

कोई आत्मीयता का कवच पहना गया ।

सामने न आया पर इतना समझा गया

वृक्ष बनो छायादार,फिर होगी मुलाकात !




6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सारगर्भित अभिव्यक्ति।
    सादर।
    -----
    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार ६ जून २०२५ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं

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