सचमुच.. सच शरारती है बङा !
जाने कब पीछे से दबे पाँव आकर
धौल जमाता है ज़ोर की छुप कर !
और फिर चंपत हो जाता है फ़ौरन !
रेत जैसा हाथों से जाता है फिसल,
अंजुरी में जैसे टिकता नहीं जल ।
बौराई पवन के झोंके की तर्ज पर
छूकर आगे बढ़ जाता है झटपट !
वर्षा की फुहार का फाये सा स्पर्श
गीली मिट्टी में समा जाता अविलंब।
इंद्रधनुष पल भर में होता ओझल
ऐसे ही नहीं देखा प्रत्यक्ष कभी सच ।
अगोचर को जानने मूंदे अपने नयन
ध्यान लगाना चाहा श्वास साध कर ।
पूर्वाग्रह अनेक सूखे पत्तों से गए झर
धूमिल हुआ शिकायतों का पतझङ ।
यात्रा में मिली जो वृक्ष की छाँव सघन
बेकल मन थका तन हो गया शिथिल
पाकर तने की टेक पलक गई झपक ।
अनायास ही हुआ कुछ ऐसा आभास
गले से लगा कर और रख सिर पर हाथ
कोई आत्मीयता का कवच पहना गया ।
सामने न आया पर इतना समझा गया
वृक्ष बनो छायादार,फिर होगी मुलाकात !
बुधवार, 4 जून 2025
सच से साक्षात्कार
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बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंबहुत सारगर्भित अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंसादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार ६ जून २०२५ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
सुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर
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