सिंदूर नहीं,
लाली थी सूरज की ।
जिसे मिटाया तुमने
मेरा सुहाग समझ कर ।
निसदिन होता है अस्त
सूर्य सुदूर क्षितिज पर ,
पर डूबता नहीं कभी ।
पुन: उदय होता है दिनकर
सतेज पीयूष पान कर..पहन
स्वर्णिम किरणों का मुकुट,
मस्तक पर रोली का तिलक ।
आलोक से आच्छादित आकाश
सीमा पर वीर सदा रहता है तैनात !
कितना भी तुम करो विश्वासघात!
कायर करते हैं निहत्थों पर वार !
सिंदूर मेट कर छल-कपट कर
छद्म की ढाल के पीछे छुप कर ..
तुमने जो किया पीठ पर वार !
थपथपाओ न अपनी पीठ अरे ढीठ !
उजङे सुहाग पर अक्षय है सौभाग्य !
सिंदूर चढ़ाते हैं हिंदू बजरंग बली पर !
जानते हैं जवान, रखना सिंदूर का मान !
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छायाचित्र आभार श्री करन पति
सशक्त सुंदर अभिव्यक्ति 👌🏻👌🏻👌🏻
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 29 मई 2025 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
बेहतरीन
जवाब देंहटाएंसुंदर सृजन
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