बचपन याद आता है बहुत
जब जीवन था सहज-सरल ।
खेलते-कूदते, लङते-झगङते
पर छोङते नहीं थे कभी हाथ ।
कङी धूप में खेलना दिन-रात
या पानी छपछपाना बेहिसाब ।
और छोङना काग़ज की नाव
सवार कर कल्पना का संसार ।
पास थी दुनिया भर की दौलत
माचिस की डिबिया,पत्थर गोल,
कंचे, पंख, चवन्नी, डाक टिकट,
कलर, सुगंधित रबर, स्टिकर ।
खाते-खेलते,पङते बीमार,मगर
फिर भी हमेशा रहते थे बेफ़िकर ।
डाँट-फटकार, तकरार सब भूल
माँ की गोद में सोते बेसुध होकर ।
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