सोमवार, 30 सितंबर 2024

सृष्टि की संजीवनी वृष्टि


डबडबाए से आसमान की

धुंधली दृष्टि से पूछा बदली ने,

पहाङों की सीढियाँ उतर के,

धरती पर खिले सुंदर फूलों से..

क्या तुम इस मूसलाधार पानी,

जल के वेग से चिंतित नहीं ?

हठात कहीं बहा ले जाए..

तुम कैसे मुस्कुरा रहे

और ठाठ से खिल रहे ?


फूल बोले सहमति में 

सिर हिलाते, खिलखिलाते.. 

हम भीगे और भीज के

कुम्हला भी गए तो क्या ?

भरपूर खिले, बिखेरी छटा

प्यास बुझा कर तृप्त हुए !

अब सूखी मिट्टी भी नम हो,

वर्षा के जल से सिंचित हो,

सघन वृक्षों की जङें सिंचें ।


उर्वर भूमि में अंकुर फूटे,

पौधे पनपें, अभिषिक्त हों,

अभीष्ट है यही ।

फसलें झूमें, भरें ताल,

शीतल पवन बहे ।

सबके मुख पर हो हास

हमारे मन में यही आस ।

वृष्टि से तरल सृष्टि में

फूल खिलते ही रहेंगे ।


6 टिप्‍पणियां:

  1. आहा अति मनमोहक अभिव्यक्ति।
    प्रकृति आपकी लेखनी से मानो सुंंदर सा लिबास ओढ़े इतरा रही है।
    सादर।
    ---
    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना मंगलवार १ अक्टूबर २०२४ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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  2. वाह!!!
    बहुत ही सुन्दर सृजन
    खूबसूरत मनोरण शब्दचित्रण।

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत ही मनोरम लाजवाब सृजन

    सबके मुख पर हो हास

    हमारे मन में यही आस ।

    वृष्टि से तरल सृष्टि में

    फूल खिलते ही रहेंगे ।
    काश फूल सी मनोवृत्ति हो सबकी

    जवाब देंहटाएं

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