डबडबाए से आसमान की
धुंधली दृष्टि से पूछा बदली ने,
पहाङों की सीढियाँ उतर के,
धरती पर खिले सुंदर फूलों से..
क्या तुम इस मूसलाधार पानी,
जल के वेग से चिंतित नहीं ?
हठात कहीं बहा ले जाए..
तुम कैसे मुस्कुरा रहे
और ठाठ से खिल रहे ?
फूल बोले सहमति में
सिर हिलाते, खिलखिलाते..
हम भीगे और भीज के
कुम्हला भी गए तो क्या ?
भरपूर खिले, बिखेरी छटा
प्यास बुझा कर तृप्त हुए !
अब सूखी मिट्टी भी नम हो,
वर्षा के जल से सिंचित हो,
सघन वृक्षों की जङें सिंचें ।
उर्वर भूमि में अंकुर फूटे,
पौधे पनपें, अभिषिक्त हों,
अभीष्ट है यही ।
फसलें झूमें, भरें ताल,
शीतल पवन बहे ।
सबके मुख पर हो हास
हमारे मन में यही आस ।
वृष्टि से तरल सृष्टि में
फूल खिलते ही रहेंगे ।
आहा अति मनमोहक अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंप्रकृति आपकी लेखनी से मानो सुंंदर सा लिबास ओढ़े इतरा रही है।
सादर।
---
जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार १ अक्टूबर २०२४ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
सुन्दर
जवाब देंहटाएंबहुत खूब
जवाब देंहटाएंवाह!!!
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर सृजन
खूबसूरत मनोरण शब्दचित्रण।
बहुत ही मनोरम लाजवाब सृजन
जवाब देंहटाएंसबके मुख पर हो हास
हमारे मन में यही आस ।
वृष्टि से तरल सृष्टि में
फूल खिलते ही रहेंगे ।
काश फूल सी मनोवृत्ति हो सबकी
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएं