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शनिवार, 1 जून 2024

बात करने से बात बनती है


नमस्कार ! हलो ! क्या ख़बर ? क्या हाल है ? सब ठीक ?

सब ठीक है.. तो बहुत अच्छा ! ठीक नहीं है तो बात कीजिए !

बिलकुल ...सही सुना आपने ! बात कीजिए.

जो भी समझता हो आपकी बात, उससे बात कीजिए.

कोई नहीं है तो हमसे बात कीजिए. 

बात करने से क्या होगा ? ये समझाना बहुत मुश्किल है.

एक काम करते हैं. आप अनय  की दास्ताँ  सुनिए.

फिर बताइयेगा बात करने से बात बनती है या नहीं !


अनय ने अभी - अभी अपनी पढ़ाई पूरी की है और नौकरी भी चटपट मिल गई. पर दूसरे शहर में. 

टीथिंग ट्रबल तो होनी ही थी. 

समस्या होना कोई नयी बात नहीं. पर समस्या का हल कैसे निकला ? ये जानने  की बात है. 


अनय जिस घर में रहता था,उसके ठीक पीछे रेलवे ट्रैक था. थोड़ी-थोड़ी देर में ट्रेन तेज़ी से गुज़रती थी. अनय वहां अकेला ही रहता था. आती-जाती ट्रेन से उसका जीवन जुड़ गया था. अनय के दिल ने ट्रेन की ही रफ़्तार से धड़कना सीख लिया था. 


आज भी रोज़ की तरह दफ़्तर से लौट कर नहा-धो कर, खाना खाने के बाद अनय एक किताब उठा कर पढने लगा था. ताकि हर रोज़ की तरह वही बात सोचते-सोचते नींद ना उड़ जाए. लेकिन फिर भी पढ़ते-पढ़ते ना जाने कब दफ़्तर की ही बातें उसके दिमाग़ में घूमने लगी थीं.  अनय किताब सीने पर रख कर शून्य में ताकने लगा. 


कुछ देर में फिर से ट्रेन धडधडाती हुई गुज़री. और फिर से अनय का दिल धडधडाता हुआ उछला और धम्म से बैठ गया. ट्रेन का शोर उसे वापिस झकझोर कर चेता गया था.


पाँच महीने हो गए थे अनय को नए दफ़्तर में काम करते हुए. आज तक दफ़्तर के लोग उसे स्वीकार नहीं कर पाए थे. अनय ने बहुत कोशिश की. पर सारे कलीग्स ने असहयोग आन्दोलन चला रखा था. अनय को समझ नहीं आ रहा था , इस उलझन को कैसे सुलझाये.


अनय उठा और अपना मुँह धोया. बालकनी में गया और लम्बी सांस लेता रहा कुछ देर तक. फिर बाहर निकल कर टहलने लगा. छुट्टियों के दिन थे. बच्चे देर रात तक खेलते रहते थे आजकल. अनय पास की एक बेंच पर बैठ कर उन्हें देखने लगा. पसीने से तर उनके मासूम चेहरे उम्मीद के दीयों की तरह टिमटिमा रहे थे. अनय का दिल धीरे-धीरे पटरी पर आ गया. बच्चों ने अनजाने में उसे संभाल लिया था. शायद अब नींद आ जाए.


अनय उठने को हुआ तो देखा, अधेड़ उम्र के एक सज्जन कुरता पायजामा पहने हुए उसी की तरह पास बैठे बच्चों का खेल देख रहे थे. अनय की नज़रें उनसे मिलीं तो वो सज्जन मुस्कुराने लगे. उनकी मुस्कुराहट में एक अपनापन था. अनायास ही बात करने का मन हो आया. पर इससे पहले कि वो कुछ कहे, उन्होंने उसकी तरफ़ देख कर कहा, “लगता है हम दोनों ने एक-सी टिकटें ली हैं !”


अनय अचकचा कर बोला,”जी, मैं समझा नहीं.”


“अरे भई ! बच्चों का मैच देखने की टिकटें हमने और आपने एक सी ही ली हैं ना !”


“जी, जी. बिलकुल सही कहा आपने..और मैच भी पैसा वसूल है !”


“बेशक़ !”


दोनों हँसने लगे.


बहुत दिनों बाद अनय से किसी ने सहज हो कर बातचीत की थी. उसे ऐसा लगा जैसे कोई बहुत भारी पत्थर उसके सीने पर से हटा दिया गया हो.


“क्यों मियाँ ! सोचते बहुत हो ?”


अनय चौंक-सा गया. बोला,” जी, अनजाने शहर में अनजाने लोगों के बीच अकेले रह कर सोचने की आदत सी पड़ गई है.”


“अच्छा नए आये हो. वही मैं सोच रहा था..तुम्हें पहले कभी नहीं देखा. नौकरी के सिलसिले में ?”


“जी.”


“कहाँ काम करते हो ?”


“कनुप्रिया क्रियेटिव्ज़.”


“कंपनी तो अच्छी है. बुरा ना मानो तो पूछूं …. तुम्हारे चेहरे पर परेशानी सी दिखाई दे रही है.क्या मैं वजह जान सकता हूँ ?”


“हाँ,” अनय ने हँसते हुए कहा,” ऐसा कोई बड़ा रहस्य नहीं.शायद मैं परिस्थिति को समझ नहीं पा रहा हूँ...या..”


“क्या बात है ?”


“मुझे इस कंपनी में काम करते हुए पाँच महीने हो गए. मुझे अपनी काबिलियत के बल पर कंपनी ने ऑफर दिया. आते ही बड़े उत्साह से मैं काम में जुट गया. किसी को कोई शिकायत भी नहीं. पर ना जाने क्यों सब लोग मुझसे कटे-कटे रहते हैं. जब बात करते हैं,ये अहसास दिलाना चाहते हैं कि मेरे आयडियाज़ फ़िज़ूल के हैं. मैं अकेला पड़ गया हूँ. यहाँ किसी को जानता भी नहीं.घर आकर बस ये ही सोचता रहता हूँ,कि क्या कमी रह गई ?”


“हम्म ..मुझे बता सकोगे कोई वाकया ?”


सुनने वाला मिला तो अनय ने कई बातें बताई.वे सज्जन बड़े धैर्य से सब सुनते रहे.बात ख़त्म हुई तो अनय ने एक लम्बी सांस ली और संकोच से बोला,” मैंने बेकार ही आपका इतना समय ख़राब किया.पर आपसे मिल कर बहुत अच्छा लगा. चलता हूँ . ”


“हाँ. बहुत रात हो गई. तुम्हें अब सोना चाहिए. बस एक बात तुमसे कहना चाहूँगा. शायद तुम्हारे काम आये. अगर तुम पूरी ईमानदारी और लगन से अपना काम करते हो तो कोई वजह नहीं लोग तुम्हें पसंद ना करें. हो सकता है, तुम्हारी काबिलियत ने कुछ लोगों के मन में असुरक्षा पैदा कर दी हो. हो सकता है, अनजाने में तुम किसी के प्रमोशन के आड़े आ गए हो. शायद इसीलिए वो तुम्हें पचा नहीं पा रहे.पर कोई बात नहीं. पहले अपने अकेलेपन का इलाज करो. इन बच्चों के साथ ही खेलने आ जाया करो. उन्हें नए खेल सिखाओ. शायद तुम्हें समझ आ जाए कि दिल जीतने में वक़्त लगता है. दफ़्तर में कोशिश करो, अपने कलीग्स की छोटी से छोटी उपलब्धि की भी सराहना करने की. ख़ासकर बॉस के सामने. उनसे मदद मांगो. जब हो सके, टीम प्रोजेक्ट का सुझाव दो. हो सकता है, महत्त्व पा कर वो तुम्हें दोष देना छोड़ दें. सोचने से नहीं... भई, खेल में स्ट्रेटेजी बदलने से मैच जीता जा सकता है !”


अनय को लगा, पहेली का हल मिल गया है. इस बात से बात बन जाएगी !

बन क्या जाएगी ! ट्रेन की तरह सरपट दौड़ेगी !


अब कमर कस कर सोना, खेलना, काम करना है !

बुरा वक़्त सबका आता है और गुज़र जाता है. यही तो खेल का मज़ा है.


ठंडी बयार पीठ थपथपाने लगी. अनय के चेहरे पर मुस्कान खेलने लगी. 


घर पहुँच कर बिस्तर पर लेटते ही अनय को नींद आ गई.


अनय जब सुबह उठा तो तरो-ताज़ा महसूस कर रहा था. झटपट नहाया,नाश्ता किया और दफ़्तर जल्दी पहुँच गया.

वहां अजब नज़ारा था. सारे लोग बड़े व्यस्त थे. बड़ी चुस्ती से काम कर रहे थे.


अपनी जगह पर पहुंचा तो ऑफिस बॉय ने एक फ़ाइल मेज़ पर रखी और बताया आज हेडक्वार्टर से कोई बड़े साहब आने वाले थे. उसी की तैयारी चल रही थी. बॉस ने उसे भी आते ही रिपोर्ट करने को कहा था. अनय बॉस के केबिन में पहुंचा तो उन्होंने बड़ी गर्मजोशी से उसका स्वागत किया. चाय मंगाई और सबको बुला कर नए प्रोजेक्ट पर अपने-अपने आयडियाज़ देने को कहा. सबको मौक़ा मिला तो किसी ने अनय को आज टेढ़ी नज़र से नहीं देखा. मौक़ा ही नहीं मिला. बॉस ने अलग - अलग टीम्स बना दीं और सब अपने-अपने काम में लग गए. अनय ने भी अपनी टीम के लोगों से पहले सलाह मांगी और फिर अपनी बात कही. अनमने तो थे वो.. पर उसे नज़रंदाज़ नहीं कर पा रहे थे. साथ में काम तो करना ही था !


आज का दिन बहुत बेहतर था. और दिनों से. शाम को दफ़्तर से निकलते हुए वो सलाह देने वाले सज्जन के बारे में ही सोच रहा था. कमाल है ! जैसे उनकी बात सच करने में सब लोग जुटे हुए थे !


लिफ्ट का इंतज़ार करते वक़्त उसकी नज़र बॉस के केबिन की तरफ़ गई. कांच के आरपार सब दिखाई देता था. अब भी कोई बैठा था उनके साथ. अचानक वो उठा, बॉस से हाथ मिलाया और दरवाज़े की तरफ़ मुड़ा तो अनय को उस आदमी का चेहरा दिखाई दिया. अरे ! ये क्या ? ये तो वही कल रात वाले सज्जन थे !


अनय का दिल धक् से रह गया. उसे सारी बात समझ में आ गई. इतनी देर में बड़े बॉस बाहर निकले तो अनय से नज़रें मिल गईं. वो मुस्कुराये और धीरे से सर हिलाया. उनकी आँखों में चमक थी. और अनय की आँखें कृतज्ञता से नम थीं.


तो समझे दोस्तों ? बात करने से बात बनी ना ? एक नज़्म सुनी होगी आपने ...बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी …


बात करने से बात बनती है,

एक खिड़की ज़हन में खुलती है.               



सोमवार, 10 मई 2021

करम की गति न्यारी


" चाय देना एक भाई ! " कमज़ोर सी आवाज़ में अतीत बोला । चाय वाले ने अतीत की ओर देखा । डेढ़ पसली का आदमी दो-तीन दिनों में ही झटक गया था । उसका सारा परिवार कोरोना ग्रस्त अस्पताल में पङा था । ये जाने कैसे बच गया था । ख़ैर ..यहाँ तो एक से एक केस थे । बचे लोग देखभाल करने वाले, तो वे सारे अस्पताल के सामने वाले बरगद के नीचे पनाह ले चुके थे और दिन गिन रहे थे । 

चाय वाले ने अतीत के सामने चाय की गिलसिया रख दी और बोला," महाराज ! आज क्या बात है ? कोई किस्सा, कहानी, चुटकुला ..कुछ नहीं । बलब फ्यूज है क्या? सब ठीक तो है ना ? "

अतीत जैसे नींद से जागा । खीसें निपोरते हुए बोला, " क्या बताऊँ यार ! कुछ समझ में ही नहीं आता, कब सलटेगा यह मौत का कुंआ जैसा खेल !"

" क्या बोले भाईसाहब? मौत का कुंआ का खेल ?"
यह आवाज़ पास बैठे जीव से निकली थी ।

अतीत," हाँ । भैया पहले नहीं देखा । तुम्हारा भी कोई भीतर फंसा है  क्या? क्या नाम है भाई  ?"

जीव ने घोषणा की," मैं? कोरोना ।"

यह सुन कर चाय वाले के हाथ से गिलसिया छूट गई ! अतीत सन्न ! झटके से उठ खङा हुआ !  बोला,"ये कैसा नाम है ? "

जीव ठठा कर हँसा । " क्यों ? तुम तो खुद ही अतीत हो ! फिर भी अभी बीते नहीं !"

अचानक अतीत को करेंट-सा लगा और वो हाथ जोड़ कर जीव के कदमों में बैठ गया," अरे प्रभु ! आप ही हैं, जिनका डंका सारी दुनिया में बज रहा है ? भई कमाल कर दिए आप तो ! ऐसा हंटर घुमाए हो कि घर का घर बरबाद कर दिया ! कौन जनम का बदला लिए हो गुरु ? जरा दया-माया नहीं?" बोलते-बोलते अतीत की आवाज़ भर्रा उठी ।

जीव बोला," काहे इतना रो-धो रहे हो ? इतना ही दिल में इमोसन रहा तो ससुर हमें पैदा काहे किए ?"

अतीत," हम ? हम पैदा किए ?? तुमको ? हम पागल हैं क्या ? "

जीव,"छोङो यार ! तुम आदम जात की पुरानी आदत है ! कांड कर के मुकर जाना !"

अतीत हतप्रभ देख रहा था जीव की ओर , " कांड ? कौनसा कांड ? क्या बक रहे हो ?"

जीव," क्यों? मैं तो तुम्हारी ही नाजायज़ औलाद हूँ ना ? "

अतीत,"ऐ भाई ! कुछ भी बोलेगा ? तेरा कोई धरम-ईमान नहीं क्या ?"

जीव,"मैं क्या धरम-ईमान की पैदाइश हूँ?? तो फिर ये उम्मीद क्यों ?"

अतीत ऑंखें फाङ कर देखता रहा ।

जीव," क्यों? तुम ही लोग बता रहे हो कि ये तो मानव निर्मित जैविक हथियार है । अंधाधुंध प्रकृति का दोहन । आदमी भी तो इसी प्रकृति का एक हिस्सा है । समय रहते तुमने क्या किया ? शतुरमुर्ग की तरह आधुनिक सुविधाओं में मुँह छिपा लिया ? धृतराष्ट्र बने बैठे रहे । फिर दुर्योधन - दुशासन पर बस न चला ! अब महाभारत होने से कौन रोक सकता है ? इस तबाही के लिए क्या तुम ही ज़िम्मेदार नहीं हो? किसे दोष देते हो ?"

अतीत, चाय वाला और बाकी लोग भौंचक्के से खङे थे । मूर्तिवत ।

जीव बोला,"मरना तुम्हारे हाथ में नहीं । पर तुम जिओगे कैसे ? ये तो तुम तय करो ।"


शुक्रवार, 27 सितंबर 2019

कैलेंडर


सुबह से ही गहरे बादल घिरे हुए थे. सायली झटपट काम निबटा कर जल्दी घर जाना चाहती थी. इधर कुछ दिनों से झुटपुटा होने से पहले घर पहुँचने की कोशिश रहती थी उसकी. उसकी खोली तक पहुँचने के रास्ते में एक चाय की टपरी पर.. मरे कुछ आदमी आकर बैठने लगे थे एक दो महीने से ! बेहुदे कहीं के ! फालतू गाने गाना ! खी-खी हँसना घूरते हुए !

चाय वाला काका आँखों के इशारे से ही टपरी तक आने को मना कर देता था. संझा को लौटते हुए ख़ुद ही बिस्कुट जैसा छोटा-मोटा सामान दे जाता था. कहता था, "दूर ही रहना बिटिया. ये बेशरम मुझे कुछ ठीक नहीं लगते. औरतों के बारे में बेकार बातें करते हैं." 
उस दिन सामान दे कर पैसे लिए और जाते-जाते ठिठक गया. हिचकिचाते हुए माई को देख कर बोला,"मोबाइल में शायद भद्दी चीज़ें देखते हैं. अच्छा नहीं लगता. पर मुस्टंडों से क्या कहूँ ? अभी कुछ ऐसा किया भी नहीं है बीबी. किस बात पर टोकूं ? मेरे साथ वाला कहता है ..आजकल सब देखते हैं. कोई गुनाह थोड़े है...पता नहीं. पर मेरा जी घबराता है. अभी तक कुछ ना हुआ..पर भगवान ना करे ..कुछ हो जाए तो ? संभल के रहना." काका ने जो खुटका बैठा दिया मन में, तो घर से निकलने से लेकर वापिस लौटने तक मन में बेचैनी बनी रहती.
ये सब सोचते-सोचते सायली के हाथ फुर्ती से चल रहे थे. तभी अचानक तूफ़ान-सा आ गया. खिड़की-दरवाज़े खड़कने लगे जोर-जोर से.. इतनी तेज़ हवा चलने लगी. 
दीदी ने कमरे से ही आवाज़ दी,"सायली, बाहर से कपड़े उठा लेना. बारिश आएगी लगता है. सब भीग जाएंगे."
सायली ने जवाब दिया,"हाँ,दीदी. उठती हूँ." भाग कर कपड़े उठा कर लाई और तखत पर धर दिए.
एकाएक उसकी नज़र दीवार पर पड़ी तो देखा, एक बहुत बड़ा कैलेंडर टंगा था जो पहले तो नहीं था. कैलेंडर में बहुत बड़ा चित्र था दुर्गा पूजा का. बहुत सुंदर. एकटक देखती रह गई सायली. तभी दीदी गुड़िया को संभालती हुई बाहर आ गई.
सायली को कैलेंडर निहारते देखा तो मुस्कुरा के बोली,"क्यों ? तुझे बहुत पसंद आया क्या कैलेंडर सायली ?"
सायली चौंक गई. बोली,"हाँ, दीदी कितना सुन्दर है ना ? और इतना बड़ा ! सच्ची के जैसा ! इसलिए मैं देखते ही रह गई !"
दीदी हँस कर बोली," हाँ, है तो बहुत सुन्दर. हर महीने का एक चित्र है. अच्छे-मोटे कागज़ का है तो भारी भी बहुत है. हम तो लगाने से रहे. तुझे चाहिए तो ले जा."
सायली,"अरे नहीं नहीं दीदी ! मैं तो बस देख रही थी. हमारी खोली भी तो छोटी-सी है."
दीदी बोली,"ले जा घर एक बार.नहीं जमे तो वापिस ले आना. किसी और को दे देंगे. ले जा."
इतना कहने पर सायली ने कैलेंडर उतार कर रख लिया अपने पास. फिर बाकी बचा काम ख़त्म कर निकल पड़ी.
इतनी ही देर में बादल ज़ोर से बरस कर चलता बना था. अँधेरा-सा तो हो गया था पर अच्छा हुआ कि बारिश बंद हो गई थी. उसने जल्दी-जल्दी क़दम बढ़ाये. चाय की टपरी की बगल से दबे पाँव निकल जाना चाहती थी कि देखा टपरी तो बंद पड़ी है. ऐसा कैसे ? पर खैर ...सायली ने चैन की सांस ली. टपरी की रौशनी नहीं थी तो मोहल्ले का वो कोना अँधेरा-सा हो गया था. सायली ने सोचा..जल्दी से निकल जाऊँ ...तभी दबी आवाज़ में हँसने की आवाज़ ने उसको चौकन्ना कर दिया. वो एक आड़ में हो गई और बिना हिले-डुले सुनने की कोशिश करने लगी. आदमियों की आवाज़ थी. फुसफुसा कर कुछ कह रहे थे. और हंसी तो रुक ही नहीं रही थी.
"अरे यार ! रोज़-रोज़ मोबाइल देख कर पक गया था ! लाइव माल का मज्जा ही मस्त है !"
"लाइव माल ? कैसे ? घर वालों को मालूम नई पड़ेगा ? और पैसा ? उसका क्या ?"
"वोई तो यार ! इधर टपरी पर गाना गाने ..घूरने से कोई बोल नहीं सकता. पर..."
"अरे छोड़ ना यार ! इधर भी कोई कुछ नई बोल सकता."
"ऐसा क्या ? बता-बता !"
"अरे वो लास्ट में खोली के पीछे बाजू ख़ाली जगह है ना ..भंगार पड़े रहता है जिधर. उधर दीवार नई क्या ? बस वो दीवार पे चढ़ा था बच्चा लोग का गेंद लाने को. अरे रात में नई खेलते क्या उधर ?"
"हाँ तो ?"
"अरे उधर ही देखा ! क्या नज्जारा ! उधर सबका घर का खिड़की ! टूटा-फूटा तो रहता ही है ! रात को लाइट जलाये तो फुल वीडियो !"
सबका ठहाका ...
और सायली सुन्न पड़ गई थी. पसीने से तर-बतर. फिर से ठहाका लगा तो होश आया.
"ए चल रे ! अभी चल ! ट्रेलर ! क्या ?"
ठहाका ...
सायली पूरा दम लगा कर भागी और घर जा कर ही रुकी. हाँफते-हाँफते खोली में घुसी और धम से बैठ गई. सर घूम रहा था.
अचानक वो उठी और पूरी खोली को टटोल-टटोल कर देखने लगी, कहीं फांक तो नहीं ! खिड़की तो ठीक है. रोशनदान ? हाय राम ! कितने दिनों से सोच रही थी...तभी दीदी के दिए कैलेंडर पर ध्यान गया. अगर ये उधर टांग दें तो ? उसके ऊपर एक खूँटी भी है. फटाफट कुर्सी सरका कर ,उस पर चढ़ कर सायली ने कैलेंडर टांगा और उतर कर पंखा फुल स्पीड कर दिया. देखने लगी कहीं कैलेंडर फड़फड़ा कर गिर ना जाए..पर इतना बड़ा और भारी कैलेंडर दीवार की तरह दीवार से चिपक गया था.
सायली दीवार की तरह ढह गई और ज़मीन पर बैठी-बैठी दुर्गा पूजा का चित्र एकटक देखने लगी और उसका सारा डर और गुस्सा पिघल कर आँखों से बहने लगा.
"वाह री सायली ! इत्ता सुन्दर कैलेंडर कहाँ से लाई ? और लगा भी दिया. अच्छा है रे ! पेंटिंग जैसा !"
माई कब आ कर पीछे खड़ी हो गई थी,पता ही नहीं चला सायली को.
"है ना माई ? सबके घर में एक ऐसा ही कैलेंडर होना चाहिए. और उसे पता होना चाहिए कि कहाँ लगाना चाहिए."
"बिलकुल ठीक बोली सायली. फटा कपड़ा के लिए रफ़ू और टूटी-फूटी दीवार को ढांपने वास्ते कैलेंडर !

शनिवार, 31 अगस्त 2019

टिकुली की माला


पीला गेंदा, नारंगी गेंदा, मोगरा, रजनीगंधा, हरसिंगार, बेला, जूही और ये गुलाब !
टिकुली फूली नहीं समा रही थी ! सात साल की इस नन्ही परी  के हाथों में फूलों से भरी टोकरी नहीं, फूलों की घाटी ही सिमट आई थी !

वसंत पंचमी की मीठी बयार ने टिकुली को सुबह-सुबह टपली मार के जगा दिया था.सरस्वती पूजा के दिन फूलों की अल्पना बनाने और माला पिरोने का काम टिकुली को बहुत भाता था. अल्पना पूरी हो गई थी. अब माला पिरोने की बारी थी. बड़े मनोयोग से टिकुली काम में जुट गई. 

उधर टिकुली सुई-धागा लाने गई, टोकरी में एक-दूसरे से सट  कर बैठी फूल सखियाँ हंसी-ठिठोली करने लगीं आपस में.

बेला ने इतरा कर कहा, "मोती जैसा रूप मेरा ! है कोई मेरे जैसा ?"

रजनीगंधा ने नन्ही जूही का हाथ थामा और मंद-मंद मुस्काते हुए अपना पक्ष रखा, "अच्छा !"
"देखो जी ! रात की रानी और जूही को शायद तुमने नहीं देखा !
अजी ! बावरा कर देता है हमारी भीनी-भीनी खुशबू का झोंका ! "

चंपा-चमेली दोनों बहन सी ..दोनों ने अपनी आँखें तरेरी !
"अपनी ही अपनी कहोगी री ?
  हम भी तो किसी से कम नहीं !"

इतने में गेंदे ने अपनी कही !
"अब बस भी करो जी ! 
बहुत हुई तुम्हारी जुगलबंदी ! अब मेरी सुनो जी !
मेरी तो हर मंगल काज, हर पर्व पर होती है उपस्थिति ! अब कहो जी !"

"एक बात मैंने हमेशा देखी है। क्या तुमने भी गौर किया है ?"

सारी की सारी  चहक पड़ीं, "क्या ?"

"तुम सब बहुत सुंदर और सुगन्धित पुष्प हो. तुम्हारी तो बात ही निराली है !
पर कभी इस गुलाब पर भी नज़र डाली है ?"  .... ...... ..... ...... 

"गुलाब कहलाता तो फूलों का राजा है।  पर वो राजा, जिसके सर पर कांटों का ताज है।"  

सारे फूल मौन हो कर सोच में पड़ गए.... बात तो सही है। 
गुलाब के दामन में कांटे ही कांटे हैं। 

मोगरा भी भावुक हो पास ढुलक आया और हाथ जोड़ कर गुलाब से बोला, "वास्तव में तुम्हारी बलिहारी है ! कांटों में ही कटती सारी ज़िन्दगी तुम्हारी है। राजा की पदवी तुम्हें इसीलिए मिली है।"

सभी फूलों ने हामी भरी और शीश नवाया। यह सब सुन कर गुलाब लजाया और मुस्कुराया। बोला,"सब की अपनी नियति है। किसी को कोमल पत्तियां मिली हैं। किसी को कांटों का कवच मिला है। जितना अपनाओ जीवन उतना सरल है। हर बात के पीछे कोई कारण है। कांटे चुभते अवश्य है।  पर फिर भी मेरा रक्षा कवच हैं। जैसा समझो जीवन वैसा लगता है। यही मन और जीवन की सुन्दरता है। "

सारे फूलों ने सुगन्धित समर्थन जताया। जो कांटों में भी खुश हो कर जीता है, उसे ही गुलाब के रूप और सुगंध का वरदान मिलता है। 

सारे फूल टुकुर-टुकुर आकाश को देख रहे थे। और तभी खिलखिलाते हुए टिकुली सुई धागा लेकर माला पिरोने आ गई। 

टोकरी में झाँका तो ठिठक गई। अपलक देखती ही रह गई। फूल तो और अधिक खिल गए थे ! 
कितनी सुन्दर माला बनेगी ! माँ सरस्वती पर और भी खिलेगी !

माला में पिरोये वासंती फूल और बीच में गुलाब। टिकुली को क्या पता, इस बीच क्या हुआ था !
पर देवी सरस्वती ने सब कुछ देखा था। सारे फूल और अधिक  रूपवान हो गए थे, क्योंकि उनके मन संवेदना से जुड़ गए थे।  और टिकुली का मन था, माला का धागा। फूलों को पिरोने वाला। 

इस संसार में सबसे सुन्दर वह है , जो हर परिस्थिति में, दूसरों में भी सुन्दरता देखता है और उसे मन में पिरो लेता है। 



मंगलवार, 9 अप्रैल 2019

अपना कोना



"जीवन से लम्बे हैं बंधु , इस जीवन के रस्ते  .. " सुरम्या ने अपना चहेता गीत इतने दिनों बाद सुना तो वॉल्यूम बढ़ा दिया। मन्ना दा का गाया यह गीत जब से सुना था, तब से ही ना जाने क्यों बहुत अपना लगता था। अपना शहद-नीबू पानी का गिलास लेकर सुरम्या खिड़की के पास बैठ गई। खिड़की के पास लगे काले पत्थर पर बैठना उसे बेहद सुकून देता था।  खिड़की में लगे तीन-चार पौधे और विविधभारती पर बजते गीत उसके हमेशा के साथी थे।  हमेशा के हमजोली। बाकी सब आते-जाते रहे जीवन भर।  आज भी यह गीत प्ले हुआ तो ऐसा लगा मानो कोई सुन रहा है।  कोई समझ रहा है, जो उस पर बीत रही है। वास्तव में  .. जीवन से लम्बे हैं बंधु, इस जीवन के रस्ते  ..  

सब अपने-अपने रास्ते चले गए थे। पति अभिराम अपने काम में व्यस्त सीढियां चढ़ते जा रहे थे। अपनी कामयाबी से बेहद खुश। घर-परिवार सुरम्या के सुपुर्द कर निश्चिन्त। और सुरम्या से ही मीलों दूर।  बहुत दूर। 

बच्चे बड़े हो गए।  नया-नया उड़ना सीखा था।  पंख फैलाये आकाश की ऊंचाइयां नापने में लगे थे।  हाँ, तो क्या हुआ ? सुरम्या तुम यही तो चाहती थीं। कामयाब और खुश परिवार।  हाँ।  बात तो सही है।  पर यह नहीं सोचा था कि कामयाबी और ख़ुशी के साथ उदासी भी चुपके से आकर  घर में बस जाएगी . . बल्कि उसी के मन में घर कर जाएगी। 

दिन भर घर ख़ाली रहने लगा जब   .. सुरम्या ने धीरे-धीरे इतने बरसों से मन में लगी गिरहों को खोलना शुरू किया।  सबके चले जाने के बाद पूरा घर उसका स्टेज बन जाता। सुरम्या को हमेशा से अच्छा लगता था  .. बेकार चीज़ों को जोड़-तोड़ कर उन्हें काम की सुन्दर चीज़ें बनाना।  अब फिर से उसने घर के कोने-कोने को तराशना शुरू किया। पर दौड़ते-भागते परिवार की नज़र में कुछ भी ना आया।  जब कभी सब मिल कर बैठते और अपने-अपने काम के बारे में बढ़-चढ़ कर बताते, वह भी धीरे से अपनी बनाई चीज़ों के बारे में बताना शुरू करती।  पर सब जैसे एक औपचारिक मुस्कुराहट के साथ आगे बढ़ जाते। उसका सारा उत्साह ठंडा पड़ जाता। इन बैठकों में वह असहज हो उठती।  फिर उसने कोशिश करना छोड़ दिया। 

एक दिन उसे ख़याल आया कि उसकी बनाई चीज़ें उपयोगी और सुन्दर तो हैं पर उनसे वह बात नहीं कर सकती।  उस तरह नहीं जुड़ सकती जैसे किसी सजीव  .. क्यों ना खिडकियों को पौधों से सजा दे ! और चिड़िया के लिए घर भी बना दे !

फिर क्या था ! सुरम्या व्यस्त हो गई पौधों की बच्चों की तरह देखभाल करने में।  गौरैया के लिए सुन्दर-सा घर भी बनाया।  फूल खिलने लगे। गौरैया आकर बस गई।  आख़िरकार, उसने एक अपना कोना बना ही लिया था, घर की बेख़बर दुनिया में।  इस कोने में बैठ कर काम करने में मज़ा भी आने लगा। 

एक दिन उसके यहाँ काम करने वाली गुलाब ने उससे कहा,"भाभी, आप कितनी सुन्दर चीज़ें बनाती हो, इसको बाज़ार में बेचती क्यों नहीं ?"

सुरम्या बोली,"अरे ! तू भी क्या बेकार की बातें करती है ! ये कौन खरीदेगा ?"

गुलाब ने कहा,"भाभी, सब तरह के खरीददार होते हैं।  लोगों को अलग चीज़ चाहिए होती है।  जैसी किसी के पास ना हो। तुम कर के तो देखो ! मेरे घर के पास एक दीदी ऐसा ही सामान बनाती है। पर तुम्हारे जितना सुन्दर नहीं। फिर भी उसका दुकान चलता है। "

सुरम्या ने सोचा चलो ये भी कर के देखने में क्या बुराई है।  अपना सामान दिखाया दो-तीन दुकानदारों को। उन्हें अच्छा लगा। एक ने हामी भर दी। कुछ दिन लगे, और सामान बनाने में।  फिर दुकान में सामान पहुंचा दिया, गुलाब की मदद से। 

फिर इंतज़ार के दिन।  उसके राज़दार थे - गुलाब, पौधे और गौरैया। लगभग तीन महीने बाद कुछ सामान बिका। सुरम्या को ज़रा चैन आया।  पर गुलाब की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था ! 

अभी कुछ देर पहले गुलाब अपनी कॉलेज में पढने वाली  बेटी जूही को लेकर आई थी।  उसने बताया कि वह अपनी सहेली के लिए गिफ्ट लेने गई थी।  घर आई तो गुलाब ने खुश होकर बताया कि ये तो भाभी की बनाई चीज़ है ! पर जब उसने दाम बोले तो गुलाब का माथा ठनका और वो सीधे सुरम्या  के पास बेटी को लेकर आ गई।  समझ में आ गया कि दुकानदार सुरम्या को कम पैसे दे रहा था।  पर ज़्यादा दाम पर बेच रहा था।  वह झूठ बोल रहा था।  

सुरम्या का मन फिर खिन्न हो उठा।  उसे लग रहा था  .. वह हर जगह ठगी गई।  रिश्तों में, जो अपने होकर भी उसकी भावनाओं और प्रतिभा से अपिरिचित थे। और अब ये  .. 

अचानक उसका ध्यान गौरैया के शोर मचाने पर गया। गौरैया बहुत ज़ोर से शोर मचा कर उसे पुकार रही थी। यह सिलसिला कई दिनों से चल रहा था। गौरैया के घर में बड़ी चिड़िया मतलब..मैना आकर घर बसाना चाहती थी।  बार-बार आकर चोंच मार कर उन्हें डराती थी। उनके शोर मचाते ही सुरम्या कहीं से भी दौड़ कर आती और मैना को उड़ाती। इस बार भी सब भूल कर सुरम्या उठी और मैना  को भगाया। थोड़ी देर में गौरैया का जोड़ा हौले-हौले फुदक कर पास आया और घर में चली गया ।  शांति हो गई। 

लेकिन इस छोटी-सी उथल-पुथल ने सुरम्या की सोच का कोई तार झनझना दिया था।  इस छोटी-सी गौरैया के जीवन में कितनी अनिश्चितता थी। दिन में कई बार बड़ी चिड़िया का आक्रमण होता था। खतरे की तलवार हमेशा लटकती रहती थी सर पर।  पर इस नन्हे से जीव में जीने की अदम्य इच्छाशक्ति थी, जो कभी भी उसे हार मान  कर बैठने नहीं देती थी। खतरा टला।  चहचहाना शुरू !

सुरम्या को लगा अगर यह छोटा-सा जीव कभी भी अपने को निरीह नहीं मानता। एक पल खतरों से जूझता है, और दूसरे ही पल फिर वही चहचहाना, तिनके जोड़ना, बच्चों को दाना खिलाना,पंख फैला कर उड़ना .. वही सामान्य जीवन क्रम चलने लगता है तो  ..  

... तो उसके पास तो बहुत साधन हैं, विकल्प हैं और सामर्थ्य है। अब तक कभी हार मान कर आंसू नहीं बहाए तो अब क्यों ? ठगे जाकर भी औरों को ना ठगने का संकल्प ही उसका सबसे बड़ा संबल है। दुनिया बहुत बड़ी है।  इस ठौर नहीं तो किसी और ठौर। 

हिम्मत आते ही सुरम्या को समझ में आ गया कि उसे क्या करना है।  गुलाब और जूही को बुला कर उनसे बात की और तय किया कि जूही के कॉलेज में जब फेयर लगेगा तो जूही अपने स्टाल में सुरम्या का सामान रखेगी और अच्छे दामों में बेचेगी। सबको अपना नंबर भी दे देगी ताकि फिर किसी को कुछ चाहिए हो तो सीधे बात करे। अपने ख़ाली समय में जूही वह सामान पहुंचाती रहेगी। आगे-आगे फिर देखेंगे।  

अब जाकर सुरम्या को सच में चैन आया।  जूही के हाथ में उसकी मेहनत के चार पैसे आयेंगे। और सुरम्या को मिलेगा सबसे बड़ा धन - संतोष धन। कुछ पैसे भी मिलने से परहेज नहीं !

सहसा गौरैया का चहचहाना सुन कर सुरम्या अपने कोने में जाकर बैठ गई और उसका पंख फैला कर बार-बार उड़ना,फुदकना और चहचहाना देख कर मुस्कुराने लगी। 

पंख हैं, तो उड़ने से डरना क्या ? 


बुधवार, 3 अप्रैल 2019

सही क़दम




बारिश रुक गयी थी । पर बादल थे । और ठंडी बयार बह रही थी । चाची ने बेसन की गरम-गरम पकौड़ियाँ बनायीं थीं । सारे के सारे चचेरे भाई-बहन गुट बना कर  बाहर बरामदे में बैठे हुए थे । अनुभा जो इन सब में  बड़ी थी, अभी-अभी अदरक वाली चाय बना कर ले आई थी । चाय ही नहीं, बातों और गप्पों की भी चुस्कियां सब ले रहे थे ।

इतने में प्रभात को सूझा कि क्यों न इतने अच्छे मौसम में गोल चक्कर घूमने जाया जाये ! एकमत से सभी झट तैयार हो गए । चांडाल चौकड़ी निकल पड़ी घूमने । स्कूल में पढ़ने वाले नील, सायली और पायल । कॉलेज में पढ़ने वाले अनिकेत, निखिल और अनुभा ।

गोल चक्कर से घूम कर लौटने लगे तो रास्ते में एक मूंगफली बेचने वाला बच्चा मिला । सबने एक-एक पुड़िया ली । चलते-चलते अनुभा और सायली थोड़ा आगे निकल गए । बाकी चारों एक-दूसरे की खिंचाई करते हुए ज़रा पीछे रह गए थे और अपने में मशगूल थे ।

अनुभा और सायली अपनी बातों में इतनी मगन थीं कि सामने से आते दो लड़कों पर उनका ध्यान नहीं गया । उनमें से एक लड़का अचानक सायली से टकरा गया और उसका दुपट्टा खींचने लगा । अनुभा ने जैसे ही ये हरकत देखी , वह लड़के पर झपट पड़ी और उसका कालर पकड़ कर उस पर चिल्लाने लगी , "क्या ? क्या कर रहा है ? हाँ  ! क्या कर रहा है ?  

बाकी चारों का अब ध्यान गया इस ओर ।  चारों भाग कर आये और अनुभा को उस लड़के से अलग करने की कोशिश करने लगे ।
अनिकेत और निखिल बोले, "अनुभा ! अनुभा ! तू हट ! हम देखते हैं !"
नील बोला, "क्या हुआ दीदी ?" … "क्या हुआ सायली ?"

अनुभा ने किसी की नहीं सुनी । उस लड़के के कालर पर अनुभा की पकड़ और कस गयी । उसका चेहरा गुस्से से तमतमा रहा था । उसने अपने भाइयों को परे धकेल दिया और उस लड़के को धक्का देकर पास ही पड़ी बेंच पर ले गयी । सड़क के किनारे थी ये पत्थर की बेंच ।

अनुभा की प्रतिक्रिया उस लड़के के लिए पूर्णतः अनपेक्षित थी । वह भौंचक्का रह गया था । उसकी सारी मस्ती काफ़ूर हो गयी थी । वही हाल उसके साथ वाले लड़कों का भी था । अनुभा ने धक्का दे कर उस लड़के को बेंच पर बैठा दिया और उस पर अपनी पकड़ ढीली ना करते हुए, बेंच पर उसके पास बैठ गयी ।

अनुभा के चेहरा अभी भी  तमतमा रहा था पर उसने एकदम शांत और गंभीर आवाज़ में उस लड़के से कहा - "क्या नाम है तुम्हारा ?"
लड़के की आवाज़ मुश्किल से फूटी, "सिद्धार्थ । "
अनुभा, "नाम तो बड़ा अच्छा है । काम ऐसे टुच्चेपने के क्यों करता है ?"
सिद्धार्थ कुछ ना बोल पाया ।
अनुभा ने कड़क कर कहा, "मोबाइल दे अपना !"
सिद्धार्थ अब गिड़गिड़ाने लगा - "गलती हो गयी दीदी ! माफ़ कर दो ! सॉरी !"
अनुभा फिर कड़की, "फ़ोन दे अपना चुपचाप !"
सिद्धार्थ सकपका कर जेब से फ़ोन निकालने लगा । फ़ोन निकाल कर उसने अनुभा को दे दिया और फिर गिड़गिड़ाने लगा - "दीदी ! सॉरी ! सॉरी बोला ना दीदी ! पुलिस को फ़ोन मत करना प्लीज़ ! प्लीज़ !"
अनुभा - "अगर पुलिस को फ़ोन करना होता तो मैं अपने फ़ोन से भी कर सकती थी । हाथ हटा  .... ! पर . . तेरे फ़ोन में तेरे घर का नंबर होगा ना ! 
घर  … home  … ये रहा ।"    
सिद्धार्थ ने घबरा कर अनुभा का हाथ पकड़ लिया- "दीदी नहीं ! घर पर फ़ोन नहीं करना ! घर पर नहीं प्लीज़ !" सिद्धार्थ हाथ जोड़ कर कहने लगा - "मुझे मार लो आप लोग ! पर घर फ़ोन नहीं करना प्लीज़ !"
अनुभा - "क्यों ? घर पर फ़ोन क्यों नहीं ? ऐसा क्या किया है तुमने ? किस बात का डर ?"            
सिद्धार्थ - "नहीं ! नहीं ! प्लीज़ दीदी !"       
अनुभा - "तेरे घर पर माँ होगी ! बहन होगी ! क्यों ? उनको बताते हैं ना  . . तू क्या कर रहा था !"
सिद्धार्थ - "नहीं ! नहीं !"
अनुभा - "ठीक है । अगली बार किसी लड़की को परेशान करने का मन करे तो पहले अपनी माँ और बहन को याद कर लेना ! समझा ! "
ऐसा कहने के साथ अनुभा ने एक ज़ोर का तमाचा रसीद किया सिद्धार्थ के गाल पर और उठ खड़ी हुई, सिद्धार्थ का कालर छोड़ कर । सिद्धार्थ ने डरते हुए अनुभा के भाइयों की तरफ देखा । फिर सायली की तरफ देख कर नज़रें झुका लीं और बोला , "सॉरी । "

अनुभा ने सायली का हाथ पकड़ा और घर की तरफ़ चलने लगी । कुछ दूर तक सब चुपचाप चलते रहे । फिर अनिकेत बोला , "बहुत हिम्मत की तूने अनुभा । पर अगर उन लड़कों के पास चाकू, छुरा होता तो ?"

अनुभा ने कहा , "हो सकता था , वो हमें चोट पहुँचाते , पर खतरा मोल लेना ज़रूरी था । आखिर इसी रास्ते से कल हम सबको स्कूल या कॉलेज जाना ही पड़ता । कैसे जाते ? ऐसे ही डर - डर कर ?" ये कह कर अनुभा ने अनिकेत की ओर देखा और चुप हो गयी । 

कुछ देर में अनुभा फिर बोली , "और अपना रास्ता सुरक्षित करने के साथ-साथ कभी-कभी हमें भूले-भटकों को भी रास्ता दिखाना पड़ता है । ज़रूरी है ।"

अनुभा के चेहरे पर मुस्कराहट आ गयी और सभी भाई-बहन भी एक दूसरे की तरफ़ देख कर मुस्कुराने लगे । ये सहीकदम उठाने की आत्मविश्वास भरी मुस्कान थी ।