रोज़ सुबह
दस सैंतालीस पर
दरवाज़ा खटखटाता है,
मेरा एक ख़्वाब।
दरवाज़ा ना खोलो,
तो चिल्लाता है वो
इतनी ज़ोर से कि
कान के पर्दे ही नहीं,
आत्मा के तार भी
उठते हैं झनझना !
कहीं फिर से
सो जाऊं ना..
भूल कर ख़ुद
अपना ही ख़्वाब!
घंटाघर के घंटे जैसे
उधेङ देते हैं नींद
एक झटके में,
हर दिन सुबह
दस सैंतालीस पर,
मेरे फ़ोन की घङी में
बज उठता है अलार्म,
याद दिलाने के लिए
कि अभी बाकी हैं करने
बहुत ज़रुरी काम ।
एक बार झल्ला कर
मैंने पूछा भी था,
ख़्वाब सच हों इसके लिए
होना पङता है सजग
कमाना पङता है विश्वास,
और करना पङता है
अथक प्रयास।
ऐसे ही नहीं बन जाते
स्वप्नों के महल !
बिस्तर छोङ कर पहले
खोदनी पङती है नींव,
पक्की नींव पर ही
खङे होते हैं दरो-दीवार ।
फिर बनते हैं रोशनदान,
खिङकियाँ हवादार ।
उसके बाद रहने वालों के
दिलों में बसा प्यार और सरोकार ।
तब जाकर होता है गुलज़ार ..
... ख़्वाबघर ।
बहुत ही सुन्दर दिल छू लेने वाली रचना
जवाब देंहटाएं"दिल से दिल को राह होती है,सब कहते हैं" .
हटाएंबहुत धन्यवाद, अभिलाषा जी.
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 7 फरवरी 2024को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
अथ स्वागतम शुभ स्वागतम।
हार्दिक आभार, पम्मी जी.
हटाएंवाह
जवाब देंहटाएंशुक्रिया, जोशी जी.
हटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंआहा ... क्या बात है ...
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