तुम्हारी नियति ही यही है ।
आघात सहना और जीना ।
घनी छाँव देख मुसाफ़िर
सुस्ताने आ बैठते इस ठौर ।
कुछ पहर बैठ कर निश्चिंत
चल देते हैं गंतव्य की ओर ।
पंछी भी कई डालते डेरा,
कुछ ही दिन का रैन बसेरा ।
नित दाना-पानी जुगाड़ना,
टहनियों पर टिका घोंसला,
बच्चों के संग चहचहाना..
वह भी कितने दिन का ?
शाखों पर खिलते फूल-फल,
तितलियों के रुपहले पंख,
भंवरे की गुन-गुन-गुन गुंजन
गिलहरी चंचल परम व्यस्त
हर डाली पर चहल-पहल ..
इक दिन झर जाते सभी पात ।
सब कुछ छीन लेता पतझङ
तुम रह जाते बस एक ठूंठ ।
फिर तने पर भी होता प्रहार ।
न फल-फूल, न ठंडी छाँव ,
आदमी को कुछ नहीं दरकार,
जब उसे करना ही हो वार !
तुम्हारी नियति है ..कहा ना
बीज से पनपना और बढ़ना,
खोने-पाने का क्रम दोहराना,
मिट्टी में गहरी जङें जमाना
इसे क्या कहें कहो विडंबना ?
या कहें ठूंठ की जिजीविषा !
सुन्दर भाव |
जवाब देंहटाएंअति सुन्दर...
जवाब देंहटाएंइसे क्या कहें कहो विडंबना ?
या कहें ठूंठ की जिजीविषा !
आभार
Uttam preranadayi
जवाब देंहटाएंविश्व हिंदी दिवस पर शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंसादर
सुंदर सृजन!
जवाब देंहटाएंतुम्हारी नियति है ..कहा ना
जवाब देंहटाएंबीज से पनपना और बढ़ना,
खोने-पाने का क्रम दोहराना,
मिट्टी में गहरी जङें जमाना
इसे क्या कहें कहो विडंबना ?
या कहें ठूंठ की जिजीविषा !
बहुत सुंदर सृजन
ठूँठ की जिजीविषा
वाह!!!