कहते हैं हरसिंगार
उठो भोर हो जब
देख पाओगे तब,
कैसे नि:शब्द
झरते हैं हरसिंगार,
झोली भर-भर
निर्जन पथ पर ।
कौंधते ठहर-ठहर कर
छोटे-छोटे कर्णफूल,
भीनी-भीनी सुगंध
शांत ध्यानमग्न प्रहर..
पथ पर ठहर पथिक
समझो समय का मोल,
कहते हैं हरसिंगार ।
यह है साधना का क्षण,
नहीं कोई कोलाहल।
देखो मन का दर्पण
सुनो अंतर्मन का स्वर
और करो संकल्प दृढ़।
यही है सही समय ..
कहते हैं हरसिंगार।
लक्ष्य ठान कर अविलंब
करो पथ पर प्रयाण ।
दिवस का प्रथम अभिवादन
सुनो पंछियों का गान ।
भोर में ही उठ कर
निकलो प्रभात फेरी पर ..
कहते हैं हरसिंगार।
राह पर बिछे अनंत फूल,
फूल चुनने का उपक्रम
जब हो शुभारंभ,
सुगंध ह्रदयंगम कर...
प्रशस्त करो पथ..
भोर का तारा बन..
कहते हैं हरसिंगार ।
वाह.
जवाब देंहटाएंएक बार शरद रास की रात थी.. पूनम चंद्रमा की किरणे धरती को चूम रही थी.. हम और मोहन खूब देर तक हरसिंगार के नीचे सुगंधित वायु से मुग्ध हो रास खेल रहे थे । मंद मंद पवन चल रहा था। और एकदम से मेरे सिर पर एक हरसिंगार गिरा.. और इस तरह से वो मेरे कान के ऊपरी भाग में गिरा मानो हरि ने ही मेरा श्रृंगार कर दिया हो.. मैं अपने आप और मोहन के उस मनमोहक छवि को निहारने लगी.. कुछ समय पश्चात 2 हरसिंगार के फूल मोहन पर भी गिरे..एक मुकुट पर बैठा और दूसरा हथेली पर.. मानो कह रहा हो ये वाला भी लगाओगी क्या? मैंने ऐसे देखा.. नहीं यह तो तुम पर ही ज्यादा सुंदर लग रहा है, तुम ही पहनो। उस कोमल अंगुलियों पे बैठे उन कोमल हरसिंगार के फूल को देख मैं कही.. तुम्हारे कोमलता को ये कोमल फूल ही सराह सकते हैं.. यह सुनते ही उनके नैनो में जो चमक देखी.. शायद वो उस रात के चंद्रमा से भी ज्यादा चमकीली थी।
जवाब देंहटाएंऔर ऐसे ही हम आनंद लेते हुए विहार कर रहे थे और अचानक से हरसिंगार की वर्षा होने लगी.. मानो रास को देख आकाश से देवता गण सुगंधित फूलों की वर्षा कर रहे हों । ऐसे झूम झूम नाचे.. ऐसे ठुमक ठुमक नाचे.. नाच नाच के न चाहते हुए भी थक गए । उसी वृक्ष के नीचे बैठ विश्रमण करने लगे.. मोहन ने जलपान किया और ठंडे ठंडे कोमल तृण के कालीन पर विश्राम किया.. हवा मंद मंद बहने लगी मानो हमे सहला रही हो और हमारा श्रम दूर कर रही हो । हरसिंगार का सुगंध और मोहन के दिव्य शरीर से उत्पन्न सुगंध मानो हृदय पे हज़ारों बाण चला रहा था.. उस घ्राण मात्र के आनंद को क्या बखानूं! कुछ मिनट पश्चात फिर एक दो एक दो हरसिंगार हम पर गिरने लगे मानो अब वो हमे सहलाना चाह रहे हों । मेरे नयनों से वो हरसिंगार भी एक गोपी ही निकली जो निस्वार्थ भाव से ठाकुर के आनंद को ही अपना लक्ष्य बना कर सेवा करती रही..
सुन्दर
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