गुरुवार, 18 जनवरी 2024

उत्तरायण


समय ने करवट ली ,

सूर्य ने दिशा बदली,

धूप मेहरबान हुई, 

पवन कम सर्द हुई । 

सृष्टि की तंद्रा टूटी ।


खेतों में खुशहाली !

पकी फसल झूमती ,

रंग चटकने लगे,

ऊष्मा भरते हुए 

धरती की गोद में ।


मेरे मन की उमंग

बन गई उङती पतंग !

सतरंगी सपनों सी,

छा गई गगन पर 

बिंदियाँ हर रंग की !


गोटियाँ खेल की ,

सरपट दौङने लगीं !

अबके होङ मच गई  !

चंदा वाली ऊँची गई 

पर हरी पिछङ गई!


मगर कोई बात नहीँ!

ये तो बस एक जंग है !

कहीं बज रही चंग है !

पतंग उङाता है कोई !

मगर लूटे कोई और है ! 


डोर से बंधी हुई 

हर एक पतंग है !

फिर भी वो इठलाती

नागिन-सी सरसराती

चली सूर्य की ओर है ।


आँखोँ में आँखें डाल 

पूछती कई सवाल!

अंक में भर उजास 

थिरकती परांदी सी

घूम रही गाँव-गाँव ।


लंबी चोटी वाली

बार-बार बल खाती

करती हुई मुनादी 

तिल-गुङ मिलेगा उसे

जो बोल मीठे बोल दे !


उङा ले पतंग जी भर,

बादलों से भी ऊपर,

जो नज़रें मिला ले, 

धूप के रथ पर बैठे

सजीले सूरज से !


की थी जो मनौती,

दी थी जो चुनौती,

आसमान रंगने की ।

जीत ही ली बाज़ी !

रुपहले इंद्रधनुष से ! 


धरती के इस छोर से 

नभ के उस छोर तक

हर रंग की पतंग है !

डोर हाथ में हो अगर

आकाश कहाँ दूर है !


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चित्र : अंतरजाल से साभार 


8 टिप्‍पणियां:

  1. राम जी नजर नहीं आ रहे है? जय श्री | सुन्दर

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    1. राम जी से मिलने ही तो पतंगें उड़ रही हैं ! धन्यवाद, जोशी जी.

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  2. बहुत ही सुन्दर और सार्थक रचना सखी

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    1. अभिलाषा सखी, आपका आभार. बहुत दिनों में आना हुआ आपका. जुड़ी रहिएगा. अच्छा लगता है.

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  3. पतंग की ओट में ज़िन्दगी समझती रचना ! बहुत सुन्दर नूपुरम जी I

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    1. आप समझ गए ! आपको ज़रूर पतंग उड़ानी आती होगी ! धन्यवाद, नीरज जी. नमस्ते पर आपका हार्दिक स्वागत है.

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