स्टेशन से
ट्रेन सरकते- सरकते
पीछे छूटने लगते हैं
प्लेटफ़ॉर्म और
प्लेटफ़ॉर्म पर खङे लोग ।
प्लेटफ़ॉर्म सिर्फ़
स्टाॅप नहीं होते ।
स्टेशन केवल
साइनबोर्ड नहीं होते ।
रेलवे-स्टेशन किसी
उपन्यास के पन्नों में
छुपे कथानक होते हैं,
कथानक में गुंथे
चरित्र होते हैं,
जो पूरे सफ़र में
साथ चलते हैं ।
तब भी जब काॅल
ड्राॅप होने लगते हैं ।
यादों से अभिषिक्त
आँसू बहने लगते हैं ।
जो कहना-सुनना
रह गया था,
उनका गिला-शिकवा
करते-करते सफ़र
तय हो जाते हैं,
फिर उन्हीं रास्तों पर
चलते-चलते,
बात पूरी करने की
उम्मीद में,
सफ़र होते हैं
मुकम्मल।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
कुछ अपने मन की भी कहिए