मंगलवार, 24 अक्तूबर 2023

मनोबल दो माँ


फिर एक बार वही हुआ माँ

जो होता आया है बार-बार।

दिन तुम्हारी अष्टमी पूजा का,

अवसर उत्सव कन्या पूजन का,

जी में उत्साह नहीं रत्ती भर का,

दरस तुम्हारी तेजोमयी भंगिमा का 

झंकृत कर देता चेतना के तार,

पर सूझता न था कौनसा खोलूँ द्वार,

निविङ अंधकार ह्रदय में नहीं उजास..

सम्मुख होकर भी माँ तुम नहीं पास ।

खिन्नमना पा न सकी तुम्हारी करूणा ।


इसी समय वह कन्या आई पहली बार

सरल, मुखर और उसके मुख पर हास।

आर्द्र करता भुवन,भोलापन बालिका का ।

अनायास ही काग़ज़ उठाया और बनाया

उससे भी बनवाया छोटा-सा बुकमार्क।

जिस बिटिया को बार-बार कर याद

छलछलाते थे नयन, भर आता था मन,

उसी की पुनरावृति मानो हुई साकार,

बुझती हुई लौ को जगाती बार-बार।

अस्वीकार और स्वीकार के मध्य 

भूल कर अवसाद और तिरस्कार का प्रहार 

मन फिर हो गया, प्यार लुटाने को तैयार ।


झरने की सहज गति, उसका मुक्त प्रवाह

चट्टानों पर गिरती टूट कर जल की धार

टूटती नहीं, बिखर कर बन जाती फुहार ।

टूटना-बिखरना यदि जीवन की दक्षिणा 

तो जैसा तुम ठीक जानो..मनोबल दो माँ।





13 टिप्‍पणियां:

  1. उत्तर
    1. नमस्ते, ओंकार जी. प्रोत्साहन के लिए हार्दिक आभार.

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  2. बहुत मार्मिक अभिव्यक्ति , आपके दुख का अन्दाजा लग गया ।

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    1. धन्यवाद, शारदा जी. नमस्ते पर आपका स्वागत है. आती रहिएगा.

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    2. हार्दिक धन्यवाद, शारदा जी ।

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  3. मार्मिक रचना, दिल को छू गई।

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    1. माँ से कही बात अक्सर मार्मिक हो ही जाती है । धन्यवाद, रुपा जी ।

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