फिर एक बार वही हुआ माँ
जो होता आया है बार-बार।
दिन तुम्हारी अष्टमी पूजा का,
अवसर उत्सव कन्या पूजन का,
जी में उत्साह नहीं रत्ती भर का,
दरस तुम्हारी तेजोमयी भंगिमा का
झंकृत कर देता चेतना के तार,
पर सूझता न था कौनसा खोलूँ द्वार,
निविङ अंधकार ह्रदय में नहीं उजास..
सम्मुख होकर भी माँ तुम नहीं पास ।
खिन्नमना पा न सकी तुम्हारी करूणा ।
इसी समय वह कन्या आई पहली बार
सरल, मुखर और उसके मुख पर हास।
आर्द्र करता भुवन,भोलापन बालिका का ।
अनायास ही काग़ज़ उठाया और बनाया
उससे भी बनवाया छोटा-सा बुकमार्क।
जिस बिटिया को बार-बार कर याद
छलछलाते थे नयन, भर आता था मन,
उसी की पुनरावृति मानो हुई साकार,
बुझती हुई लौ को जगाती बार-बार।
अस्वीकार और स्वीकार के मध्य
भूल कर अवसाद और तिरस्कार का प्रहार
मन फिर हो गया, प्यार लुटाने को तैयार ।
झरने की सहज गति, उसका मुक्त प्रवाह
चट्टानों पर गिरती टूट कर जल की धार
टूटती नहीं, बिखर कर बन जाती फुहार ।
टूटना-बिखरना यदि जीवन की दक्षिणा
तो जैसा तुम ठीक जानो..मनोबल दो माँ।
मार्मिक
जवाब देंहटाएंसुंदर अभिव्यक्ति।
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