जब तब मैंने
उलाहना दे दे
खूब सताया है
गोविंद को अपने,
रो-रो के व्यर्थ में
पाथर कह डाला है,
अपने कष्ट के झोंटे में
कान्हा को ठेल दिया है..
पर गोविन्द ने कब मुँह फेरा है ?
दिवारात्रि अनर्गल प्रलाप को मेरे
शीश पर धर कर कमल शांत किया है ।
केशव तुम्हें ज्ञात है जग में कौन अपना है ।
आसरा एकमेव एकमेव एकमेव बस तुम्हारा है ।
दुख-द्वंद मेरा था गिरिधर पर भार तुमने उठाया है ।
केशव तुम्हें ज्ञात है जग में कौन अपना है । बहुत गहन भाव...केशव से वार्तालाप...। बहुत खूब
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना
जवाब देंहटाएंअच्छी रचना है ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंआपने बहुत अच्छी पोस्ट लिखी है. ऐसे ही आप अपनी कलम को चलाते रहे. Ankit Badigar की तरफ से धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंAtti Sundur khoob bhalo
जवाब देंहटाएंKya baat hai noopur
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर भावपूर्ण सृजन।
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