एक दिन अकस्मात
झर गए यदि सब पात
ऐसा आये प्रचंड झंझावात..
ना जाने क्या होगा तब ?
सोच कर ह्रदय होता कम्पित।
सुखी टहनियों पर कौन गाता गीत ?
सूने ठूंठ पर कौन बनाता नीड़ ?
रीते वृक्ष का कोई क्यों हो मीत ?
क्या कभी हो पायेगा संभव ऐसा ?
ठूंठ की जड़ में जाग्रत हो चेतना।
प्राण का संचार हो शाखाओं में ऐसा
लौट आये बेरंग डालियों पर हरीतिमा।
कोई पंछी राह भूले पथिक सा
संध्या समय आन बैठे विस्मित सा।
अनायास ही छेड़ दे कोई राग ऐसा
धूप और वर्षा की बूंदों के शगुन का।
दृढ विश्वास के नव पल्लवों की हो ऐसी छटा
पात-पात शोभित हो वन्दनवार सरीखा।
अद्भुत। पूरी में महाप्रभु का सिद्ध बकुल का वृक्ष है। हर साल भारी बारिश और चक्र वाक से टूट जाता है। टूट हुए काष्ट के विग्रह बना के लोग ले जाते हैं सेवा करते हैं फिर। और बकुल तो हमेशा उगता ही है। ये तो प्रकृति का नियम है। उत्पत्ति और विलीन गति।
जवाब देंहटाएंयह बात कविता का मर्म है. कितना सुन्दर प्रसंग है.
हटाएंअनंत आभार अनमोल सा.
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 5.9.19 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3449 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
आभार आपका.
हटाएंपात-पात शोभित हो बंदनवार सरीखा
जवाब देंहटाएंधूप और वर्षा की बूंदों का शगुन
सुन्दर भाव प्रस्तुति नूपुर जी
हार्दिक आभार.
हटाएंशगुन हुआ तो आपका बहुत दिनों में आना हुआ. : )
स्वागत है पुनः
प्रकृति के प्राण वापस लाने को इन पंक्तियों में आपने सावित्री-प्रयास किया है नूपुर जी ... अद्भु्त
जवाब देंहटाएंअलकनंदा जी, आपका आभार ।
हटाएंआप नमस्ते पर आईं ।
आपने इतने सुंदर शब्दों में सराहना की ...
आशा है, आपको कभी निराश ना करूँ ।
प्रकृति का सुंदर एवं मार्मिक चित्रण..
जवाब देंहटाएंजो भी है नाम आपका
हटाएंअनंत आभार आपका