मंगलवार, 24 सितंबर 2019

ढीठ


रोज़ जिस बस स्टॉप से
बस मिलती है मुझे
ठीक उसके सामने
लाल ईंट की बनी
एक टूटी दीवार है ।

इस रास्ते पर वैसे
कई पेड़ हैं हरे-भरे
पर इस दीवार को जैसे
छोड़ कर आगे बढ़ गए हैं ।
ये बस एक दीवार है,
जिस पर इश्तहार भी
नहीं चिपकाए जाते ।

सूनी दोपहर में अकेले
खाली बस स्टॉप पर बैठे
कई दफ़ा इस दीवार से
कह डाले अपने गिले-शिकवे ।
क्योंकि अब आदमी लोग
दुखड़े नहीं सुनते ।
वक़्त बर्बाद नहीं करते ..
कामकाजी ठहरे,
झटपट आगे बढ़ जाते हैं ।
अगला स्टॉप आने से पहले ।

और ये तो ईंट की दीवार है ।
उजाड़ और बेरोज़गार है ।
मवाली कौवे तक पास नहीं फटकते !
ढीठ बन कर फिर भी खड़ी है ।
भग्न हृदय जैसे हार नहीं मानते ।

बहरहाल इसी तरह बरसों गुज़र गए
हम अभ्यस्त हो गए थे एक-दूसरे के
शायद एक दूसरे की दरारों के ।

फिर एक दिन बस का इंतज़ार करते
दीवार पर नज़र गई तो देखा अरे !
बीचों-बीच दीवार में पड़ी दरार से
फूटी थी हरी कोपल अपने ही रंग में !
मानो पत्थर का कलेजा चीर के !

दीवार भी थी बड़े ही असमंजस में !
टूट गई थी मरम्मत की आस करते-करते ।
अचानक कुछ बदल गया था आबोहवा में ।
उम्मीद जाग गए थी कोपल के उगने से ।
हो सकता है नव पल्लव घना वृक्ष बन जाये ।
छाँव मिले तो कोई टेक लगा कर बैठ जाये ।

अब दीवार से बातें करो तो चहकती है ।
मेरे मन में भी ज़िंदादिली करवट बदलती है ।



13 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (25-09-2019) को    "होगा दूर कलंक"  (चर्चा अंक- 3469)     पर भी होगी। --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
     --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'  

    जवाब देंहटाएं
  2. वाह गजब अभिव्यक्ति ,
    विषम में भी जीने का जज्बा कोपल के माध्यम से
    बधाई

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. शुक्रिया,अनीताजी. आपका पहली बार नमस्ते पर आना हुआ. हार्दिक स्वागत है.
      आपकी सहृदय सराहना भी इस कोपल को सींचेगी.

      हटाएं
  3. बहुत सुंदर,
    कृपया हमारे ब्लॉग पर भी पधारे।
    https://paathsaala24.blogspot.com/2019/09/blog-post_11.html?spref=tw

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. धन्यवाद,आनंदजी.
      नमस्ते पर आपका स्वागत है.
      जल्दी ही पाठशाला पर मिलेंगे.

      हटाएं
  4. दीवार भी थी बड़े ही असमंजस में !
    टूट गई थी मरम्मत की आस करते-करते ।
    अचानक कुछ बदल गया था आबोहवा में ।
    उम्मीद जाग गए थी कोपल के उगने से ।
    हो सकता है नव पल्लव घना वृक्ष बन जाये ।
    छाँव मिले तो कोई टेक लगा कर बैठ जाये ।... बेहतरीन सृजन
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  5. हम अभ्यस्त हो गए थे एक-दूसरे के
    शायद एक दूसरे की दरारों के ।... बहुत खूब ल‍िखा नूपुरम जी

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. धन्यवाद,अलकनंदा जी.
      दरारें तो पड़ ही जाती हैं.
      दरारें भरी भी जा सकती हैं.

      हटाएं
  6. बहुत बहुत सुंदर और दिल छू लेने वाली अभिव्यक्ति नूपुर जी ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. मन की वीणा बहुत दिनों में झंकृत हुई.
      याद आ रही थी.
      अनंत आभार.

      हटाएं

कुछ अपने मन की भी कहिए