रोज़ जिस बस स्टॉप से
बस मिलती है मुझे
ठीक उसके सामने
लाल ईंट की बनी
एक टूटी दीवार है ।
ठीक उसके सामने
लाल ईंट की बनी
एक टूटी दीवार है ।
इस रास्ते पर वैसे
कई पेड़ हैं हरे-भरे
पर इस दीवार को जैसे
छोड़ कर आगे बढ़ गए हैं ।
ये बस एक दीवार है,
जिस पर इश्तहार भी
नहीं चिपकाए जाते ।
कई पेड़ हैं हरे-भरे
पर इस दीवार को जैसे
छोड़ कर आगे बढ़ गए हैं ।
ये बस एक दीवार है,
जिस पर इश्तहार भी
नहीं चिपकाए जाते ।
सूनी दोपहर में अकेले
खाली बस स्टॉप पर बैठे
कई दफ़ा इस दीवार से
कह डाले अपने गिले-शिकवे ।
क्योंकि अब आदमी लोग
दुखड़े नहीं सुनते ।
वक़्त बर्बाद नहीं करते ..
कामकाजी ठहरे,
झटपट आगे बढ़ जाते हैं ।
अगला स्टॉप आने से पहले ।
खाली बस स्टॉप पर बैठे
कई दफ़ा इस दीवार से
कह डाले अपने गिले-शिकवे ।
क्योंकि अब आदमी लोग
दुखड़े नहीं सुनते ।
वक़्त बर्बाद नहीं करते ..
कामकाजी ठहरे,
झटपट आगे बढ़ जाते हैं ।
अगला स्टॉप आने से पहले ।
और ये तो ईंट की दीवार है ।
उजाड़ और बेरोज़गार है ।
मवाली कौवे तक पास नहीं फटकते !
ढीठ बन कर फिर भी खड़ी है ।
भग्न हृदय जैसे हार नहीं मानते ।
उजाड़ और बेरोज़गार है ।
मवाली कौवे तक पास नहीं फटकते !
ढीठ बन कर फिर भी खड़ी है ।
भग्न हृदय जैसे हार नहीं मानते ।
बहरहाल इसी तरह बरसों गुज़र गए
हम अभ्यस्त हो गए थे एक-दूसरे के
शायद एक दूसरे की दरारों के ।
हम अभ्यस्त हो गए थे एक-दूसरे के
शायद एक दूसरे की दरारों के ।
फिर एक दिन बस का इंतज़ार करते
दीवार पर नज़र गई तो देखा अरे !
बीचों-बीच दीवार में पड़ी दरार से
फूटी थी हरी कोपल अपने ही रंग में !
मानो पत्थर का कलेजा चीर के !
दीवार पर नज़र गई तो देखा अरे !
बीचों-बीच दीवार में पड़ी दरार से
फूटी थी हरी कोपल अपने ही रंग में !
मानो पत्थर का कलेजा चीर के !
दीवार भी थी बड़े ही असमंजस में !
टूट गई थी मरम्मत की आस करते-करते ।
अचानक कुछ बदल गया था आबोहवा में ।
उम्मीद जाग गए थी कोपल के उगने से ।
हो सकता है नव पल्लव घना वृक्ष बन जाये ।
छाँव मिले तो कोई टेक लगा कर बैठ जाये ।
टूट गई थी मरम्मत की आस करते-करते ।
अचानक कुछ बदल गया था आबोहवा में ।
उम्मीद जाग गए थी कोपल के उगने से ।
हो सकता है नव पल्लव घना वृक्ष बन जाये ।
छाँव मिले तो कोई टेक लगा कर बैठ जाये ।
अब दीवार से बातें करो तो चहकती है ।
मेरे मन में भी ज़िंदादिली करवट बदलती है ।
मेरे मन में भी ज़िंदादिली करवट बदलती है ।
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (25-09-2019) को "होगा दूर कलंक" (चर्चा अंक- 3469) पर भी होगी। --
जवाब देंहटाएंसूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
धन्यवाद, शास्त्रीजी.
हटाएंनमस्ते.
वाह गजब अभिव्यक्ति ,
जवाब देंहटाएंविषम में भी जीने का जज्बा कोपल के माध्यम से
बधाई
शुक्रिया,अनीताजी. आपका पहली बार नमस्ते पर आना हुआ. हार्दिक स्वागत है.
हटाएंआपकी सहृदय सराहना भी इस कोपल को सींचेगी.
बहुत सुंदर,
जवाब देंहटाएंकृपया हमारे ब्लॉग पर भी पधारे।
https://paathsaala24.blogspot.com/2019/09/blog-post_11.html?spref=tw
धन्यवाद,आनंदजी.
हटाएंनमस्ते पर आपका स्वागत है.
जल्दी ही पाठशाला पर मिलेंगे.
दीवार भी थी बड़े ही असमंजस में !
जवाब देंहटाएंटूट गई थी मरम्मत की आस करते-करते ।
अचानक कुछ बदल गया था आबोहवा में ।
उम्मीद जाग गए थी कोपल के उगने से ।
हो सकता है नव पल्लव घना वृक्ष बन जाये ।
छाँव मिले तो कोई टेक लगा कर बैठ जाये ।... बेहतरीन सृजन
सादर
अनीता सखी, आपकी टेक मिली, बड़ भाग हमारे.
हटाएंहम अभ्यस्त हो गए थे एक-दूसरे के
जवाब देंहटाएंशायद एक दूसरे की दरारों के ।... बहुत खूब लिखा नूपुरम जी
धन्यवाद,अलकनंदा जी.
हटाएंदरारें तो पड़ ही जाती हैं.
दरारें भरी भी जा सकती हैं.
बहुत बहुत सुंदर और दिल छू लेने वाली अभिव्यक्ति नूपुर जी ।
जवाब देंहटाएंमन की वीणा बहुत दिनों में झंकृत हुई.
हटाएंयाद आ रही थी.
अनंत आभार.
It's very relative😇
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