शनिवार, 14 जुलाई 2018

ढीठ

तना झुक गया है,
फिर भी,
तन कर
चुनौती दे रहा है,
आने वाले
समय की
अनिश्चितता को ।

या झुक कर
सलाम कर रहा है,
सर पर तने
नीले आकाश की
असीम संभावनाओं को ।

ये पेड़ ज़िद्दी,
बन कर पहेली,
कब से
खड़ा है
मेरे रास्ते में,
ठेल रहा है मुझे
ठहर कर
सोचने को ।

4 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (16-07-2018) को "बच्चों का मन होता सच्चा" (चर्चा अंक-3034) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    राधा तिवारी

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  2. राधा जी धन्यवाद. इतने सुन्दर शीर्षक वाली चर्चा में शामिल करने के लिए.

    शुक्रिया ज्योति. ब्लॉग पर मिलना और नमस्ते करना भी अच्छा लगता है.

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  3. आचार्य जी ने गोवर्धन लीला के समय बताया था की जब सीधे से काम ना बने तो जिस से काम बने, वाके पैर पकड लो, वाके सामने झुक जाओ. काम बन जाएगा. नन्द मेहेर के ढीट ने तो प्यारी जू के आगे झुक के अपना काम बना लिया, शायद ये पेड भी उनके पथ पे चल के अपना काम कर रहा है.

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